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सौंफ की खेती कैसे करे
सौंफ। हरी और कुरकुरी सौंफ हम सभी मुखवास के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। यही सौंफ सेहत के लिए भी खासी गुणकारी है। आइए जानते हैं इसके ऐसे 17 फायदे जो सेहत के लिए अनमोल हैं।
सौंफ में विटामिन सी की जबर्दस्त मात्रा है और इसमें आवश्यक खनिज भी हैं जैसे कैल्शियम, सोडियम, फॉस्फोरस, आयरन और पोटेशियम।
1. पेट की बीमारियों के लिए यह बहुत प्रभावी दवा है जैसे मरोड़, दर्द और गैस्ट्रिक डिस्ऑर्डर के लिए।
2. सौंफ आपकी याददाश्त बढ़ाती है।
3. सौंफ का नियमित सेवन दृष्टि को तेज करता है। 5-6 ग्राम सौंफ रोज लेने से लीवर और आंखों की ज्योति ठीक रहती है।
4. सिंकी हुई सौंफ मिश्री के साथ खाने से आवाज तो मधुर होती ही है यह खांसी भी भगाती है।
5. अगर आप चाहते हैं कि आपका कोलेस्ट्रॉल स्तर न बढ़े तो खाने के लगभग 30 मिनट बाद एक चम्मच सौंफ खा लें। सौंफ कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रण में रखती है।
6. सूखी, रोस्टेड और कच्ची सौंफ को बराबर मात्रा में मिला लें। इसे खाने के बाद खाएं। इससे पाचन क्रिया बेहतर रहेगी और आप हल्का महसूस करेंगे।
7. अगर आप एक चम्मच सौंफ 2 कप पानी में उबाल लें और इस मिश्रण को दिन में दो-तीन बार लें तो आपकी आंतें अच्छा महसूस करेंगी और खांसी भी लापता हो जाएगी।
8. सौंफ की पत्तियों में खांसी संबंधी परेशानियां जैसे दमा व ब्रोन्काइटिस को दूर रखने की भी क्षमता होती है।
9. सौंफ को अंजीर के साथ खाएं और खांसी व ब्रोन्काइटिस को दूर भगाएं। कफ और खांसी के इलाज के लिए सौंफ खाना उपयोगी है।
10. मासिक चक्र को नियमित बनाने के लिए सौंफ खाएं।
11. अपच संबंधी विकारों में सौंफ बेहद उपयोगी है। बिना तेल के तवे पर सिंकी हुई सौंफ और बिना सिंकी सौंफ को मिलाकर लेने से अपच के मामले में बहुत लाभ होता है।
12. दो कप पानी में उबली हुई एक चम्मच सौंफ को दो या तीन बार लेने से अपच और कफ की समस्या समाप्त होती है।
13. अस्थमा के उपचार में सौंफ कमाल की सहायक है।
14. गुड़ के साथ सौंफ खाने से मासिक धर्म नियमित होता है।
15. यह शिशुओं के पेट और उनके पेट के अफारे को दूर करने में बहुत उपयोगी है।
16. एक चम्मच सौंफ को एक कप पानी में उबलने दें और 20 मिनट तक इसे ठंडा होने दें। इससे शिशु के कॉलिक का उपचार होने में मदद मिलती है। शिशु को एक या दो चम्मच से ज्यादा यह घोल नहीं देना चाहिए।
17. सौंफ के पावडर को शकर के साथ बराबर मिलाकर लेने से हाथों और पैरों की जलन दूर होती है। भोजन के बाद 10 ग्राम सौंफ लेनी चाहिए।
सौंफ की खेती
सौंफ की खेती मुख्य रूप से मसाले के रूप में की जाती है। सौंफ के बीजों से ओलेटाइल तेल (0.7-1.2 प्रतिशत) भी निकाला जाता है, सौंफ एक खुशबूदार बीज वाला मसाला होता है। सौंफ के दाने आकार में छोटे और हरे रंग के होते हैं। आमतौर पर इसके छोटे और बड़े दाने भी होते हैं। दोनों में खुशबू होती है। सौंफ का उपयोग आचार बनाने में और सब्जियों में खुशबू और स्वाद बढ़ाने में किया जाता है। इसके आलावा इसका उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है। सौंफ एक त्रिदोषनाशक औषधि होती है। भारत में सौंफ को राजस्थान (सिरोही, टोंक), आंध्रप्रदेश, पंजाब, उत्तरप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और हरियाणा के भागों में उगाया जाता है। इन क्षेत्रों में सौंफ का अधिक मात्रा में उत्पादन होता है।
भूमि – इसकी खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। लेकिन इसकी खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे उत्तम मानी जाती है। इसके आलावा चूने से युक्त बलुई मिट्टी में भी इसकी खेती की जा सकती है। इसकी अच्छी फसल लेने के लिए भूमि में से पानी का उचित निकास आवश्यक है। रेतीली मिट्टी में इसकी खेती नहीं की जा सकती।
किस्में – आरएफ 35, आरएफ 101, आरएफ 125 , गुजरात सौंफ 1, अजमेर सौंफ. 2, उदयपुर एफ 31, उदयपुर एफ 32। चबाने वाली सौंफ की लखनवी किस्म को परपरागण के 30-45 दिन बाद तुड़ाई करते है।
खेत की तैयारी – पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में 3 से 4 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करके खेत को समतल बनाकर पाटा लगाते हुए एक सा बना लिया जाता है। आखिरी जुताई में 150 से 200 क्विं. सड़ी गोबर खाद को मिलाकर खेत को पाटा लगाकर समतल कर लिया जाता है। इसके आलावा बीजों की बुवाई करने के 30 और 60 दिन के बाद फास्फेट की 40 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर फसल में डालें।
बीज बुवाई – बीज द्वारा सीधे बुवाई करने पर लगभग 9 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है। अक्टूबर माह बुवाई के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। लेकिन 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक बुवाई कर दें। बुवाई लाइनों में करना चाहिए तथा छिटककर भी बुवाई की जाती हैप् तथा लाइनो में इसकी रोपाई भी की जाती है। रोपाई में लाइन से लाइन की दूरी 60 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर रखें।
रोपाई – पौध द्वारा रोपाई करने पर लगभग 3 से 4 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है। रोपाई के लिए बीजों को नर्सरी में बोयें। पौधे तैयार करने के लिए 100 वर्ग मीटर भूमि की आवश्यकता होती है। जब पौध 5-6 सप्ताह की हो जाए तब पौध खेत मे रोपण करना चाहिए। इसके बीजों को जून या जुलाई के महीने में बोएं जब बीजों में अंकुरण हो जाये तो इसे खेत में रोपित किया जाता है। सौंफ के बीजों को हम सीधे खेत बो सकते हैं। लेकिन यदि इसे पौधशाला में बोकर इसके पौध तैयार कर लें। और इसके पौध की बुवाई करें तो इससे हम अधिक और अच्छी गुणवत्ता वाली सौंफ प्राप्त होती है, और पौधा छोटा रहता है। जो हवा में भी नहीं गिरता।
खाद एवं उर्वर – कगोबर की सड़ी हुई खाद 10-15 टन प्रति हेक्टर बुवाई के एक माह पूर्व खेत में डालें और उर्वरक की मात्र 80 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन, फास्फोरस की आधी मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिऱी जुताई के समय देना चाहिए तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा की 1/2 बुवाई के 60 दिन बाद तथा शेष 1/2 भाग 90 दिन बाद खड़ी फसल में देना चाहिए।
सिंचाई – सौंफ की फसल में पहली सिंचाई बुवाई के 5 या 7 दिन के अंतर पर कर देनी चाहिए। इसकी फसल की पहली सिंचाई करने के बाद 15 – 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखें कि खेत में पानी का भराव ना हो। यदि खेत में पानी भर जाता है तो इससे फसल और उसके बीज को हानि पहुंचती है। इसलिए खेत में पानी का भराव नहीं होना चाहिए।
खरपतवार – सौंफ की फसल में खरपतवार जल्दी ही उग आते हैं। यह इसकी फसल के लिए नुकसानदायक है। इसलिए इसकी फसल में इन खरपतवार को निकालने के लिए बुवाई के 30 दिन के बाद निराई करनी चाहिए। इसके आलावा खेत से खरपतवार को दूर करने के लिए हम खरपतवार नासक दवा (पेंडामिथालिन 1.0 लीटर/हेक्टर, बुवाई पूर्व) का भी प्रयोग कर सकते है। जिस खेत में सौंफ की खेती की जा रही हो उसे हमेशा खरपतवार मुक्त रखना चाहिए।
फसल कटाई – सौंफ की फसल लगभग 160 से 170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी फसल की कटाई उस समय करें जब इसके बीज पूरी तरह से विकसित हो जाए। हलांकि इसके बीज का रंग हरा ही रहता है। इसलिए पहले एक डंडी को तोड़कर उसमें से बीज को निकालकर दोनों हाथों के बीच रगड़कर देखें कि ये पूरी तरह से पके चुके है या नहीं। इसके बाद ही फसल की कटाई करें। इसकी फसल की कटाई लगभग 10 दिन में पूरी कर लेनी चाहिए।
कटाई के बाद बीज सुखाना – सौंफ की कटाई के बाद सौंफ को 7 से 10 दिन तक छाया में सुखाया जाता है। इसके बाद एक या दो दिन तक धूप में सुखाया जाता है। इसके बीजों को लम्बे समय तक धूप में ना सुखाएं। इससे सौंफ की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।
साफ – सफाई व ग्रेडिंग – सौंफ के बीजों को अच्छी तरह से सुखाने के बाद इसकी सफाई की जाती है। इसके बीजों को साफ करने के लिए वैक्यूम गुरुत्वाकर्षण या सर्पिल गुरुत्वाकर्षण विभाजक नामक यंत्र की सहयता लेनी चाहिए। इसके साफ और अच्छी गुणवत्ता के आधार पर पैक किया जाता है। इसे जुट से बनी ही थैलियों में पैक किया जाता है। सौंफ में होने वाले विकार की रोकथाम करने के लिए हमे सल्फ्यूरिक एसिड की 0.1 प्रतिशत की मात्रा को पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। इससे सौंफ की ठंड में किसी तरह का विकार नहीं होता।
उपज – सौंफ की उपज 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है और जब कुछ हरे बीज प्राप्त करने के बाद पकाकर फसल काटते है तो पैदावार कम होकर 9 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रह जाती है।
रोग प्रबंधन
पाउडरी मिल्ड्यू: यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी नामक कवक से होता है। इस रोग में पत्तियों, टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है जो बाद में पूर्ण पौधे पर फैल जाता है।
रोकथाम: गन्धक चूर्ण 20-25 किलोग्राम/हेक्टेयर का भुरकाव करें या घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या केराथेन एल.सी.1 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार 15 दिन बाद दोहरावें।
जड़ एवं तना गलन: यह रोग ‘स्क्लेरेाटेनिया स्क्लेरोटियेारम व ‘फ्यूजेरियम सोलेनाई’ नामक कवक से होता है। इस रोग के प्रकोप से तना नीचे मुलायम हो जाता है व जड़ गल जाती है। जड़ों पर छोटे-बड़े काले रंग के स्कलेरोशिया दिखाई देते है।
रोकथाम: बुवाई पूर्व बीज को कार्बेण्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार कर बुवाई करनी चाहिये या केप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से भूमि उपचारित करना चाहिये। ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलो प्रति हेक्टेयर गोबर खाद में मिलाकर बुवाई पूर्व भूमि में देने से रोग में कमी होती है।
झुलसा: सौंफ में झुलसा रोग रेमुलेरिया व ऑल्टरनेरिया नामक कवक से होता है। रोग के सर्वप्रथम लक्षण पौधे भी पत्तियों पर भूरे रंग के घब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। धीरे-धीरे ये काले रंग में बदल जाते है। पत्तियों से वृत, तने एवं बीज पर इसका प्रकोप बढ़ता है। संक्रमण के बाद यदि आद्र्रता लगातार बनी रहे तो रोग उग्र हो जाता है। रोग ग्रसित पौधों पर या तो बीज नहीं बनते या बहुत कम और छोटे आकार के बनते है। बीजों की विपणन गुणवत्ता का हृास हो जाता है। नियंत्रण कार्य न कराया जाये तो फसल को बहुत नुकसान होता है।
रोकथाम: स्वस्थ बीजों को बोने के काम में लीजिए। फसल में अधिक सिंचाई नही करें। इस रोग के लगने की प्रारम्भिक अवस्था में फसल पर मेंकोजेब 0.2 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिन बाद दोहरायें। रेमुलेरिया झुलसा रोग रोधी आर एफ 15,आर एफ 18, आर एफ 21, आर एफ 31, जी एफ 2 सौंफ बोयें। सौंफ में रेमुलेरिया झुलसा, ऑल्टरनेरिया झुलसा तथा गमोसिस रोगों का प्रकोप भी बहुत होता है जिससे उत्पादन एवं गुणवत्ता निम्न स्तर की हो जाती है। रोग रहित फसल से प्राप्त स्वस्थ बीज को ही बोयें। बीजोपचार तथा फसल चक्र अपनाकर तथा मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।
कीट प्रबंधन – माहू व पत्ती खाने वाले कीट
इनके नियंत्रण के लिए डाइमिथिएट 30 ई.सी. एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।