फूलगोभी की वैज्ञानिक खेती

फूलगोभी की वैज्ञानिक

परिचय

गोभी वर्गीय सब्जियों में फूलगोभी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी खेती मुख्य रूप से श्वेत, अविकसित व गठे हुए पुष्प पुंज के उत्पादन हेतु की जाती है। इसका उपयोग सब्जी, सूप, अचार, सलाद, बिरियानी, पकौडा इत्यादि बनाने में किया जाता है। साथ ही यह पाचन शक्ति को बढ़ाने में अत्यंत लाभदायक है। यह प्रोटीन, कैल्शियम और विटामिन ‘ए’ तथा ‘सी’ का भी अच्छा श्रोत है।

जलवायु

इसकी सफल खेती के लिए ठंढा और आर्द्र जलवायु सर्वोत्तम होता है। अधिक ठंढा और पाला का प्रकोप होने से फूलों को अधिक नुकसान होता है। शाकीय वृद्धि के समय तापमान अनुकूल से कम रहने पर फूलों का आकार छोटा हो जाता है। अच्छी फसल के लिए 15-20 डिग्री तापमान सर्वोत्तम होता है।

उन्नत किस्में

उगाये जाने का आधार पर फूलगोभी को विभिन्न वर्गो में बांटा गया है। इसकी स्थानीय तथा उन्नत दोनोंप्रकार की किस्में उगायी जाती है। इन किस्मों पर तापमान एवं प्रकाश अवधि का बहुत प्रभाव पड़ता है। अत: इसकी उचित किस्मों का चुनाव और उपयुक्त समय पर बुआई करना अत्यंत आवश्यक है। यदि अगेती किस्म को देर से और पिछेती किस्म को जल्दी उगाया जाता है तो दोनों में शाकीय वृद्धि अधिक हो जाती है फलस्वरूप फूल छोटा हो जाता है और फूल विलम्ब से लगते हैं। इस आधार पर फूलगोभी को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है – पहला –अगेती, दूसरा-मध्यम एवं तीसरा-पिछेती।

अगेती किस्में: अर्ली कुंआरी, पूसा कतिकी, पूसा दीपाली, समर किंग, पावस, इम्प्रूब्ड जापानी।

मध्यम किस्में: पंत सुभ्रा,पूसा सुभ्रा, पूसा सिन्थेटिक, पूसा स्नोबाल, के.-1, पूसा अगहनी, सैगनी, हिसार नं.-1 ।

पिछेती किस्में: पूसा स्नोबाल-1, पूसा स्नोबाल-2, स्नोबाल-16 ।

 

भूमि एवं उसकी तैयारी

फूलगोभी की खेती यों तो सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती, परन्तु अच्छी जल निकास वाली दोमट या बलुई दोमट भूमि जिसमें जीवांश की प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो, काफी उपयुक्त है। इसकी खेती के लिए अच्छी तरह से खेत को तैयार करना चाहिए। इसके लिए खेत को ३-४ जुताई करके पाटा मारकर समतल कर लेना चाहिए।

 

खाद एवं उर्वरक

फूलगोभी कि अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में पर्याप्त मात्रा में जीवांश का होना अत्यंत आवश्यक है। खेत में 20-25 तन सड़ी हुई गोबर कि खाद या कम्पोस्ट रोपाई के 3-4 सप्ताह पूर्व अच्छी तरह मिला देना चाहिए। इसके अतितिक्त 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर कि दर से देना चाहिए। नाइट्रोजन कि एक तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा अंतिम जुताई या प्रतिरोपण से पहले खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए तथा शेष आधी नाइट्रोजन की मात्रा दो बराबर भागों में बांटकर खड़ी फसल में 30 और 45 दिन बाद उपरिवेशन के रूप में देना चाहिए।

 

बीजदर, बुआई का समय एवं विधि

अगेती किस्मों का बीज डॉ 600-700 ग्राम और मध्यम एवं पिछेती किस्मों का बीज दर 350-400 ग्राम प्रति हेक्टेयर है।

अगेती किस्मों कि बुआई अगस्त के अंतिम सप्ताह से 15 सितम्बर तक कर देना चाहिए। मध्यम और पिछेती किस्मों कि बुआई सितम्बर के मध्य से पूरे अक्टूबर तक कर देना चाहिए।

फूलगोभी के बीज सीधे खेत में नहीं बोये जाते हैं। अत: बीज को पहले पौधशाला में बुआई करके पौधा तैयार किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में प्रतिरोपण के लिए लगभग 75-100 वर्ग मीटर में पौध उगाना पर्याप्त होता है। पौधों को खेत में प्रतिरोपण करने के पहले एक ग्राम स्टेप्टोसाइक्लिन का 8 लीटर पानी में घोलकर 30 मिनट तक डुबाकर उपचारित कर लें। उपचारित पौधे की खेत में लगाना चाहिए।

अगेती फूलगोभी के पौधों कि वृद्धि अधिक नहीं होती है। अत: इसका रोपण कतार से कतार 40 सेंमी. पौधे से पौधे 30 सेंमी. कि दूरी पर करना चाहिए। परन्तु मध्यम एवं पिछेती किस्मों में कतार से कतार 45-60 सेंमी. एवं पौधे से पौधे कि दूरी 45 सेंमी. रखना चाहिए।

 

सिंचाई

पौधों कि अच्छी वृद्धि के लिए मिटटी में पर्याप्त मात्रा में नमी का होना अत्यंत आवश्यक है। सितम्बर के बाद 10 या 15 दिनों के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में 5 से 7 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए।

 

खरपतवार नियन्त्रण

फूलगोभी में फूल तैयार होने तक दो-तीन निकाई-गुड़ाई से खरपतवार का नियन्त्रण हो जाती है, परन्तु व्यवसाय के रूप में खेती के लिए खरपतवारनाशी दवा स्टाम्प 3.0 लीटर को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव रोपण के पहले काफी लाभदायक होता है।

 

निकाई-गुड़ाई तथा मिटटी चढ़ाना

पौधों कि जड़ों के समुचित विकास हेतु निकाई-गुड़ाई अत्यंत आवश्यक है। एस क्रिया से जड़ों के आस-पास कि मिटटी ढीली हो जाती है और हवा का आवागमन अच्छी तरह से होता है जिसका अनुकूल प्रभाव उपज पर पड़ता है। वर्षा ऋतु में यदि जड़ों के पास से मिटटी हट गयी हो तो चारों तरफ से पौधों में मिटटी चढ़ा देना चाहिए।

 

सूक्ष्म तत्वों का महत्व एवं उनकी कमी से उत्पन्न विकृतियाँ

 

बोरन

बोरन कि कमी से फूलगोभी का खाने वाल भाग छोटा रह जाता है। इसकी कमी से शुरू में तो फूलगोभी पर छोटे-छोटे दाग या धब्बा दिखाई पड़ने लगते हैं तथा बाद में पूरा का पूरा हल्का गुलाबी पीला या भूरे रंग का हो जाता है जो खाने में कडुवा लगता है। फूलगोभी एवं फूल का तना खोखला हो जाता है और फट जाता है। इससे फूलगोभी की उपज तथा मांग दोनों में कमी आ जाती है। इसके रोकथाम के लिए बोरेक्स 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर कि दर से अन्य उर्वरक के साथ खेत में डालना चाहिए।

 

मॉलीब्डेनम

एस सूक्ष्म तत्व की कमी से फूलगोभी का रंग गहरा हरा हो जाता है और किनारे से सफेद होने लगती है जो बाद में मुरझाकर गिर जाती है। इससे बचाव के लिए 1.0 से 1.50 किलोग्राम मॉलीब्डेनम प्रति हेक्टेयर कि दर से मिटटी में मिला देना चाहिए। इससे फूलगोभी का खाने वाला भाग अर्थात कर्ड पूर्ण आकृति को ग्रहण कर ले एवं रंग श्वेत अर्थात उजला एवं चमकदार हो जाय तो पौधों कि कटाई कर लेना चाहिए। ढेर से कटाई करने पर रंग पीला पड़ने लगता है और फूल फटने लगते हैं जिससे बाजार मूल्य घट जाता है।

 

प्रमुख कीड़े एवं रोकथाम

फूलगोभी में मुख्य रूप से लाही, गोभी मक्खी, हीरक पृष्ठ कीट, तम्बाकू की सूड़ी आदि कीड़ों का प्रकोप होता है। लाही कोमल पत्तियों का रस चुसती है। खासकर जाड़े के समय कुहासा या बदली लगी रहे तो इसका आक्रमण अधिक होता है। गोभी मक्खी पत्तियों में छेदकर अधिक मात्रा में खा जाती है। हीरक पृष्ठ कीट के सूड़ी पत्तियों की निचली सतह पर खाते हैं और छोटे-छोटे छिद्र बना लेते हैं। जब इसका प्रकोप अधिक मात्रा में होता है तो छोटे पौधों की पत्तियाँ बिल्कुल समाप्त हो जाती है जिससे पौधे मर जाते हैं। तम्बाकू की सूड़ी के व्यस्क मादा कीट पत्तियों कि निचली सतह पर झुण्ड में अंडे देती है। 4-5 दिनों के बाद अण्डों से सूड़ी निकलती है और पत्तियों को खा जाती है। सितम्बर से नवम्बर तक इसका प्रकोप अधिक होता है। उपरोक्त सभी कीड़ों का जैसे ही आक्रमण शुरू हो तो इंडोसल्फान, नुवाक्रान, रोगर, थायोडान किसी भी कीटनाशी दवा का 1.5 मिली. पानी कि दर से घोल बनाकर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिए।

 

रोग एवं नियन्त्रण

फूलगोभी में मुख्य रूप से गलन रोग, काला विगलन, पर्णचित्ती, अंगमारी, पत्ती का धब्बा रोग तथा मृदु रोमिल आसिता रोग लगते हैं। वः फफूंदी के कारण होता है। यह रोग पौधा से फूल बनने तक कभी भी लग सकती है। पत्तियों कि निचली सतह पर जहां फफूंदी दीखते हैं उन्ही के उपर पत्तियों के ऊपरी सतह पर भूरे धब्बे बनते हैं जोकि रोग के तीव्र हो जाने पर आपस में मिलकर बड़े धब्बे बन जाते हैं। काला गलन नामक रोग भी काफी नुकसानदायक होता है। रोग का प्रारंभिक लक्षण “V” आकार में पीलापन लिए होता है। रोग का लक्षण पत्ती के किसी किनारे या केन्द्रीय भाग से शुरू हो सकता है। यह बैक्टीरिया के कारण होता है। इससे बचाव के लिए रोपाई के समय बिचड़े को स्ट्रेप्टोमाइसीन या प्लेन्टोमाइसीन के घोल से उपचारित कर ही खेत में लगाना चाहिए। (दवा कि मात्रा-आधा ग्राम दवा + 1 लीटर पानी) बाकी सभी रोगों से बचाव के लिए फफूंदीनाशक दवा इंडोफिल एम.-45 का 2 ग्राम या ब्लाइटाक्स का 3 ग्राम 1 लीटर पानी कि दर से घोल बनाकर आवश्यकतानुसार छिड़काव करना चाहिए।

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