ध्यान की परिभाषा

ध्यान : ज्ञान और अज्ञान, दोनों के पार

ज्ञान और अज्ञान

जीवन के विधायक पहलू पर ध्यान करो और फिर ध्यान को नकारात्मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।इसे इस तरह देखो: जन्म पर ध्यान दो। एक बच्चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो--इस पूरे विकास पर ध्यान दो। फिर तुम बूढ़े हो जाते हो और मर जाते हो। बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्पना करो जब तुम्हारे पिता और माता ने तुम्हें धारण किया था और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था। बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्हारा शरीर चिता पर जल रहा है और तुम्हारे संबंधी तुम्हारे चारों ओर खड़े हुए हैं। फिर दोनों को छोड़ दो, वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा Read More : ध्यान : ज्ञान और अज्ञान, दोनों के पार about ध्यान : ज्ञान और अज्ञान, दोनों के पार

ध्यान :: कभी, अचानक ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं

अचानक ऐसे हो

किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए, अतीत और भविष्य के बारे में न सोचते हुए, सिर्फ अभी और यहीं होते हुए, आप कहां हैं? "मैं' कहां है? आप इस "मैं' को अनुभव नहीं कर सकते, वह इस क्षण में नहीं है। अहंकार कभी वर्तमान में नहीं पाया जाता। अतीत अब नहीं है, भविष्य अभी आने को है; दोनों नहीं हैं। अतीत जा चुका, भविष्य अभी आया नहीं--केवल वर्तमान ही है। और वर्तमान में कभी भी अहंकार जैसी कोई चीज नहीं मिलती।

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ध्यान : गर्भ की शांति पायें

शांति पायें

जब भी तुम्हारे पास समय हो, बस मौन में निढाल हो जाओ, और मेरा अभिप्राय ठीक यही है-निढाल, मानो कि तुम एक छोटे बच्चे हो अपनी मा के गर्भ में

 

फर्श पर अपने घुटनों के बल बैठ जाओ और धीरे-धीरे अपना सिर भी फर्श पर लगाना चाहोगे, तब सिर फर्श पर लगा देना। गर्भासन में बैठ जाना जैसे बच्चा अपनी मां के गर्भ में अपने अंगों को सिमटाकर लेटा होता है। और शीघ्र ही तुम पाओगे कि मौन उतर रहा है, वही मौन जो मां के गर्भ में था।

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