मेंथा की खेती का सही समय पर और उसके फायदे

मेंथा की खेती का सही समय पर और उसके फायदे

मेंथा की खेती करने का सही समय 

हमारे देश में मेंथा की खेती बड़े पैमाने पर होती है, इसे कई अलग –अलग नामों से भी जाना जाता है, देश के कई हिस्सों में इसे मेंथा प्रीपरेटा कहा जाता है तो कई किसान इसे पुदीना भी कहते हैं। कुल मिलाकर मेंथा, मेंथा प्रीपरेटा और पुदीना की एक ऐसी प्रजाति है, जिससे बहु उपयोगी तेल निकाला जाता है, जिसकी खेती आर्थिक तौर किसानों के लिए बेहद लाभदायक है।

ऐसी मान्यता है कि मेंथा भूमध्यसागरीय बेसिन का पौधा है... जहां यह प्राकृतिक तौर पर पनपा और समय के साथ दुनिया के अन्य देशों में पहुंचा, आज इस पौधे की खेती ब्राजील, पैरागुए, चीन, अर्जेन्टिना, जापान, थाईलैंड, अंगोला के साथ ही हमारे देश में पैदावार की जाती है, आज यह फसल नैनीताल, बदायूं, बिलासपुर, रामपुर, मुरादाबाद और बरेली के तराई क्षेत्रों में बड़े स्तर पर की जाती है, साथ ही देश के दोआबा क्षेत्रों- बारांबंकी, लखनऊ के किसान भी मेंथा की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं, देश के उत्तरी पश्चिमी राज्य पंजाब के लुधियाना और जालंधर के कुछ इलाकों में इसकी खेती की जाती है।

मेंथा की खेती के लिए सबसे पहले खेत को तैयार किया जाता है खेत की लगभग 4 से 5 बार जोताई करने के बाद जब मिटटी भुरभुरी हो जाये तो खेत को समतल कर उसमे पानी भरकर मेंथा की रोपाई की जाती है। मेंथा की रोपाई के लिए नर्सरी और जड़ों, दोनों को ही प्रयोग में लाते हैं, लेकिन जो पैदावार नर्सरी से प्राप्त होती है, वो जड़ों को बोने की अपेक्षा अधिक मात्रा में होती है । नर्सरी के लिए एक थोड़े से स्थान पर खेत को तैयार कर क्यारियां बना लेते हैं और उसमें जड़ों को काफी घनी मात्रा में लगाकर सिंचाई करते रहते हैं। इस प्रकार उन जड़ों से निकलने वाले कल्ले तैयार होते हैं, जो रोपाई के लिए काम आते हैं। रोपाई प्रायः फरवरी के अंत व मार्च के शुरुआती दिनों में की जाती है।

मेंथा की जड़ें अधिक गहराई जाने के कारण इनको वायु संचार की अधिक आवश्यकता पड़ती है, इसलिए निराई गुड़ाई से हम खरपतवारों को नष्ट करते ही हैं, साथ ही मिट्टी को भूरभूरी कर देने से वायु का संचार अच्छा हो जाता है।

मेंथा में प्रति सप्ताह पानी की आवश्यकता रहती है। जून माह तक तैयार होने वाली इस फसल से अमूमन एक बीघा मेंथा में करीब 15 से 20 किलो तक मेंथा आयल निकल आता है।

निराई – गुड़ाई

मेंथा की जड़ें अधिक गहराई जाने के कारण इनको वायु संचार की अधिक आवश्यकता पड़ती है, इसलिए निराई गुड़ाई के द्वारा हम खरपतवारों को नष्ट करते ही हैं, साथ ही मिट्टी को भूरभूरा कर देने से वायु का संचार अच्छा हो जाता है, मेंथा में निराई गुड़ाई दो बार की जाती है, पहली निराई गुड़ाई मेंथा लगाने के 15 से 20 दिन के बाद और दूसरी गुड़ाई के 40 से 45 दिन के बाद करना लाभदायक होता है।

सिंचाई

मेंथा को बढ़वार के समय अधिक पानी की जरूरत पड़ती है, ताकि जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो सकें, गर्मी के दिनों में प्रत्येक सप्ताह सिंचाई करना जरूरी है।

खाद एवं उर्वरक

1-       250 से 300 क्वंटल प्रति हेक्टेयर गोबर या कंपोस्ट की खाद खेत की तैयारी के समय प्रयोग करें

2-       50 किलो नाइट्रोजन (प्रति हेक्टेयर)

3-       75 किलो फास्फेट ( प्रति हेक्टयर)

4-       37 किलो पोटाश (प्रति हेक्टयर)

5-       200 किलो जिप्पसम (प्रति हेक्टेयर)

उपर्युक्त उर्वरकों एवं जिप्पसम को रोपाई से पहले अच्छी तरह खेत में डालकर मिला दें

उसके बाद मेंथा में टॉप ड्रेसिंग हेतु 75 किलो नाइट्रोजन को अलग से लेकर तीन भागों में बांट लें

इस प्रकार पहली टॉप ड्रेसिंग 25 किलो प्रति हेक्टेयर, 20 से 25 दिन पर करें

दूसरी टॉप ड्रेसिंग 25 किलो प्रति हेक्टेयर पहली कटाई के बाद करें

तीसरी टॉप ड्रेसिंग 25 किलो प्रति हेक्टेयर,  दूसरी कटाई के बाद करें

प्रत्येक टॉप ड्रेसिंग के बाद सिंचाई करना बहुत जरूरी है

कटाई

मेंथा की यदि एकवर्षीय पौधे के रुप में फसल लेते हैं, तो पहली कटाई बरसात से पहले मई - जून में करते हैं

दूसरी कटाई बरसात के बाद सितम्बर अक्टूबर में और तीसरी कटाई नवम्बर दिसम्बर में की जाती है

उत्तर प्रदेश के मध्य क्षेत्र में मेंथा की खेती देर से रोपाई किए जाने के कारण तीन कटाई होना संभव नहीं है, ऐसी स्थिति में यदि मार्च में मेंथा की रोपाई कर दी गई है, तो केवल दो ही कटाई प्राप्त हो पाती है।

 

उपज का सही समय 

एक हेक्टेयर मेंथा की फसल से लगभग 150 किलो तेल प्राप्त हो जाता है, यदि अच्छे से प्रबंधन किया जाय और समय से रोपाई हुई हो तो 200 से 250 किलो तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है, मेंथा के तेल के लिए मेंथा की फसल को कटाई करने के बाद तेल निकालने वाले संयंत्र में फसल को ले जाते हैं, फिर कटे हुए मेंथा को कुछ समय के लिए फैला देते हैं, जिससे पत्तियां कुछ पीली पड़ जाती हैं, और वजन भी कम हो जाता है, उसके बाद डिस्टिलेशन संयंत्र में भरकर इसे गर्म करते हैं, इस प्रकार जल वाष्प के साथ तेल बाहर आता है, जहां पहले से ही जल वाष्प को ठंडाकर इक्ठ्ठा कर लिया जाता है और अंत में जल से तेल को अलग कर लेते हैं. बचा हुआ अवशेष मल्चिंग और खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है. साथ ही इसका प्रयोग पेपर और पेपर बोर्ड बनाने में भी करते हैं

पैकिंग

मेंथा आयल को गिलास, टिन अथवा अल्यूमिनियम के ड्रमों में रखना चाहिए, ड्रमों में भरकर इसे एयर टाइट कर सूर्य के प्रकाश से दूर रखना चाहिए, साथ ही जिस कमरे में रखा जाए वो कमरा भलीभांति ठंडा हो, सूर्य के सीधे प्रकाश से मेंथोल पीले रंग से हरे रंग में परिवर्तित हो जाता है, जिससे तेल की गुणवत्ता कम हो जाती है।

बाजार में 

पूरी दुनिया में मेंथोल की खपत 9600 मेट्रिक टन है, मेंथोल की पैदावार के मामले में हमारा देश विश्व में पहले स्थान पर है।

भारत – 3100 मेट्रिक टन

चीन – 2000 मेट्रिक टन

यूरोप – 1900 मेट्रिक टन

यू एस ए – 1800 मेट्रिक टन मेंथोल का उत्पादन प्रतिवर्ष करता है।

उत्तर प्रदेश में इसके व्यापारी  संभल, बाराबंकी, रामपुर, चंदौसी, बदायूं और बरेली में हैं.. जो छोटे व्यापारियों से तेल की खरीददारी करते हैं, अधिकांशतः जिन लोगों ने डिस्टिलेशन प्लॉट लगा रखे हैं, वो फसल से तेल निकालने के बाद,  उत्पादित तेल किसानों से खरीद लेते हैं... इन सभी व्यापारियों द्वारा तेल,  संबंधित कंपनियों को सप्लाई कर दिया जाता  है। 

उपयोग करो इस प्रकार 

मेंथोल का उपयोग बड़ी मात्रा में दवाईयां, सौंदर्य प्रसाधनों, कन्फेक्शनरी, पेय पदार्थों, सिगरेट, पान मसाला में खुशबू के लिए किया जाता है, साथ ही मेंथा और यूकेलिप्टस के तेल से कई रोग निवारण दवाईयां बनाई जाती हैं, गठिया जैसे रोगों के निवारण हेतु इन दवाओं का उपयोग किया जाता है।

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