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बेल की खेती

परिचय
बेल भारत के प्राचीन फलों में से एक है। बेल के लिये कहा गया है – “रोगान बिलति भिनन्ति इति बिल्ब” अर्थात जो रोगों का नाश करे वह बेल कहलाता है। बेल के जड़, छाल, पत्ते शाख और फल औषधि रूप में मानव जीवन के लिये उपयोगी हैं। प्राचीन काल से बेल को ‘श्रीफल’ के नाम से जाना जाता है। बेल विभिन्न प्रकार की बंजर भूमि (ऊसर, बीहड़, खादर, शुष्क एवं अर्धशुष्क) में उगाया जा सकने वाला एक पोषण (विटामिन-ए, बी.सी., खनिज तत्व, कार्बोहाइड्रेट) एवं औषधीय गुणों से भरपूर फल है। इससे अनेक परिरक्षित पदार्थ (शरबत, मुरब्बा) बनाया जा सकता है। झारखंड के पठारी क्षेत्रों में जहाँ अन्य फलदार पौधे नहीं उगाये जा सकते हैं, बेल की खेती की अपार सम्भावनायें हैं, क्योंकि यह एक बहुत ही सहनशील वृक्ष है। मई-जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ झड़ जाती है, जिससे पौधों में शुष्क एवं अर्धशुष्क जलवायु को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है। झारखंड राज्य की सभी जिलों में बेल की खेती की जा सकती है परन्तु बोकारो, कोडरमा, धनबाद, गिरिडीह, देवघर, चतरा, गढ़वा, लातेहार,राँची एवं हजारीबाग में इसकी व्यवसायिक खेती की जा सकती है।
उन्नत किस्में
बेल की अनेक स्थानीय किस्में हैं परन्तु हाल के वर्षो में नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी कृषि विश्वविद्यालय, गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान एवं बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम द्वारा चयनित किस्मों की सिफारिश की जाती है। कुछ प्रमुख किस्मों का संक्षिप्त विवरण निम्न है:
नरेन्द्र बेल 5
इस किस्म के पौधे कम ऊँचाई (3-5 मी.) एवं अधिक फैलाव वाले होते हैं। फल चपटे सिरे वाले, मध्यम आकार के (21 x 25 सें.मी.), मीठे स्वाद (35-280 ब्रिक्स) तथा कम बीज वाले होते हैं। गूदा कम, रेशे युक्त, मुलायम और अच्छे स्वाद वाला होता है। फलों का औसत वजन 900-1000 ग्राम तक होता है तथा पेड़ों की औसत उपज 50-60 कि.ग्रा. प्रति पेड़ तक पायी जाती है।
नरेन्द्र बेल 7
इस किस्म के पौधे औसत ऊँचाई (5-7 मी.) तथा अपेक्षाकृत कम फैलाव वाले (3-5 वर्ग मी.) तथा अपेक्षाकृत कम फैलाव वाले (3-5 वर्ग मी.) होते हैं। फल गोल तथा काफी बड़े होते हैं। जिनका का औसत वजन 3-4.5 कि.ग्रा. तक पाया जाता है।
नरेन्द्र बेल 9
इस किस्म के पौधे मध्यम ऊँचाई (4-6 मी.) एवं अधिक फैलाव वाले होते है। फल आकार में बड़े (26 ग 33 सें.मी.), अंडाकार तथा अधिक मिठास वाले (33 ग 400 ब्रिक्स) होते है। फलों का औसत वजन 1.1.5 कि.ग्रा. तक होता है तथा छिलका पतला होता है। गूदे में रेशे एवं बीज की मात्रा कम पायी जाती है। पेड़ों से औसत उपज 70-80 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक प्राप्त की जा सकती है।
पंत सिवानी
इस किस्म के पेड़ ऊपर की तरफ बढ़ने वाले एवं घने होते हैं। फल अंडाकार लम्बा, भार 1.2-2.0 कि.ग्रा. छिलका मध्यम पतला, गूदा अधिक (70-75 प्रतिशत), रेशा कम, मिठास अधिक (34-350 ब्रिक्स) एवं स्वादिष्ट होता है। पेड़ों की औसत उपज 50-60 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक पायी जाती है।
पंत अर्पणा
यह एक बौनी एवं कम घनी किस्म है, जिनकी शाखायें नीचे की तरफ लटकती रहती है। पत्तियाँ बड़ी, गहरे रंग की एवं नाशपाती की तरह होती हैं। पेड़ों पर कांटे भी कम पाये जाते है तथा फलन जल्दी एवं उपज अच्छी होती है। फल गोलाकार 0.6 से 0.8 कि.ग्रा. वजन एवं पतले छिलके वाले होते हैं। पकने पर फलों का रंग हल्का पीला होता है इसमें बीज तथा लिसलिसा पदार्थ, खटास व रेशा कम पाया जाता है। लिसलिसा पदार्थ व बीज अलग थैलियों में बंद होता है, जिसे आसानी से अलग किया जा सकता है। अत: यह किस्म प्रोसेसिंग के लिए ज्यादा उपयुक्त हो सकती है। फलों का गूदा मध्यम मीठा (30.80 ब्रिक्स), स्वादिष्ट एवं सुवासयुक्त होता है।
पंत उर्वसी
इस किस्म के पेड़ घने, वृद्धियुक्त एवं लम्बे होते है। यह एक मध्यम समय में पकने वाली किस्म है। फलों का आकार अंडाकार लम्बा तथा प्रतिफल भार 1.6 कि.ग्रा. तक होता है। छिलका मध्यम पतला, गूदा मीठा (320 ब्रिक्स), स्वादिष्ट एवं सुवासयुक्त होता है। फलों में गूदे की मात्रा 68.5 प्रतिशत एवं रेशे की मात्रा कम पायी जाती है। पेड़ों की औसत उपज 27-30 कि.ग्रा. तक होती है।
पंत सुजाता:
इस किस्म के पेड़ मध्यम आकार के घने एवं फैलने वाले होते हैं। यह एक मध्यम समय में पकने वाली किस्म है। फल गोल तथा दोनों सिरे चपटे होते हैं। फलों का औसत भार 1.2 कि.ग्रा. छिलका पतला एवं हल्के पीले रंग वाला, गूदे की मिठास 270 ब्रिक्स तथा रेशा कम होता है। फलों में गूदे की मात्रा 77.8 प्रतिशत तक पायी जाती है। पेड़ों की औसत उपज 45-50 कि.ग्रा. वृक्ष तक पायी जाती है।
सी.आई.एस.एच-बी.-1
इस किस्म के पौधे मध्यम ऊँचाई वाले एवं कम फैलाव किये होते है। फल आकार में अंडाकार गोल (15-17 सें.मी. लम्बा एवं 39-41 सें.मी. व्यास) तथा अधिक मिठास युक्त (35-40.50 ब्रिक्स) होते है। फलों का औसत वजन 0.8-1.2 कि.ग्रा. छिलका पतला (0.10-0.12 सें.मी.) एवं वजन 1.25 कि.ग्रा. प्रति फल तक का होता है। फलों में रेशे एवं बीज की मात्रा कम पायी जाती है एवं औसत उपज 50-60 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक प्राप्त की जा सकती है।
सी.आई.एस.एच.-बी.-2
इस किस्म के पौधे कम ऊँचाई वाले तथा अधिक फैलाव लिये होते हैं। फल आकार में बड़े (14.8-18 सें.मी. लम्बा एवं 52-64 सें.मी. व्यास) तथा गोल होते हैं। फलों का वजन 1.8-2.4 कि.ग्रा. तक पाया जाता है। फल अधिक मिठायुक्त (37-410 ब्रिक्स) एवं पतले छिलके वाले होते है। फलों में रेशे एवं बीज की मात्रा काफी कम होती है। इस किस्म के पौधों का उपज 40-50 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष तक पायी जाती है।
पौधा प्रवर्धन
बेल के पौधे मुख्य रूप से बीज द्वारा तैयार किये गये मूलवृंत पर कालिकायन या ग्राफ्टिंग द्वारा बनाये जाते हैं। बीजों की बुवाई फलों से निकालने के तुरन्त बाद 15-20 सें.मी. ऊँची 1 x 10 मीटर आकार की क्यारियों में 1-2 सें.मी. गहराई पर कर देनी चाहिये। बुवाई का उत्तम समय मई-जून का महीना होता है। कलिकायन के लिए 1-2 वर्ष पुराने पौधे उपयुक्त पाये गये है। जून-जुलाई माह में पैबंदी चश्मा विधि से 80-90 प्रतिशत तक सफलता मिलती है और सांकुर डाली की वृद्धि भी अच्छी होती है। जब कलिका ठीक प्रकार से फुटाव ले ले तो मूलवृंत को कलिका के ऊपर से काट देना चाहिए।
शिखर रोपण
पुराने बीजू पौधों को कलमी पौधों में बदलने के लिये चोटी कलम बाँधना चाहिये। इसके लिये पेड़ की मोटी शाखाओं की जमीन से (2.5-3.0 मी.) ऊँचाई पर मार्च में शिखर से काट कर उस हिस्से को गीली मिट्टी और टाट से ढक देते हैं। तब इन कटे हुए भागों से नई शाखाएं निकल कर कलम बाँधने योग्य हो जाएं तो उन पर जून-जुलाई में कलिकायन कर दिया जाता है। जब कलिकाएँ अच्छी तरह से फुटाव ले लेती है तब पुरानी शाखाओं को ऊपर से काट दिया जाता है।
गड्ढे की तैयारी एवं पौध रोपण
बेल के पेड़ों को 6-8 मीटर की दूरी पर जुलाई-अगस्त माह में लगाया जाता है। पौधे लगाने के एक माह पूर्व 60 60 60 सें.मी. आकार के गड्ढे तैयार कर लेते है। यदि जमीन में कंकड़ की तह हो तो उसे निकाल देना चाहिए। गड्ढों को 3-4 टोकरी सड़ी गोबर की खाद, 20-25 कि.ग्रा. बालू तथा 1 किलोग्राम चूना मिलाकर 6-8 इंच ऊँचाई तक भर देना चाहिए। इन्ही तैयार गड्ढों में जुलाई-अगस्त माह में पौध रोपण करना चाहिए। पौधे लगाने के बाद हल्की सिंचाई करना उपयुक्त होता है। सूखे क्षेत्रों में स्वस्थानिक विधि से बाग़ लगाना उपयुक्त पाया गया है।
खाद एवं उर्वरक
पौधों की अच्छी बढ़वार, अधिक फलन एवं पेड़ों को स्वस्थ रखने के लिये प्रत्येक पौधे में 10 कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद, 50 ग्रा. नेत्रजन, 25 ग्रा. फास्फोरस एवं 50 ग्रा. पोटाश प्रति वर्ष प्रति वृक्ष डालनी चाहिए। खाद एवं उर्वरक की यह मात्रा दस वर्ष तक गुणित अनुपात में बढ़ाते रहना चाहिए। इस प्रकार 10 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले वृक्ष को 500 ग्राम नेत्रजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 500 ग्राम पोटाश के अतिरिक्त 30-40 कि.ग्रा. सड़ी गोबर की खाद डालना उत्तम होता है। पठारी भूमि में लगाये गये पौधों में प्राय: जस्ते की कमी के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। अत: ऐसे पेड़ों में 250 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति पौधे के हिसाब से उर्वरकों के साथ डालना चाहिये या 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का पर्णीय छिड़काव जुलाई, अक्टूबर व दिसम्बर माह में करना चाहिए। खाद एवं उर्वरकों को पूरी मात्रा जून-जुलाई में डालनी चाहिए।
नये पौधों को स्थापित करने के लिए एक दो वर्ष सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। स्थापित पौधे बिना सिंचाई के भी अच्छी तरह से रह सकते है। गर्मियों में बेल का पौधा अपनी पत्तियाँ गिराकर सुषुप्ता अवस्था में चला जाता है और इस तरह यह सूखे को सहन कर लेता है।
पौधों की संधाई, छंटाई एवं अंत: फसलें
पौधों की सधाई का कार्य शुरू के 4-5 वर्षो में करना चाहिए। मुख्य तने को 75 सें.मी. तक शाखा रहित रखना चाहिए। इसके बाद 4-6 मुख्य शाखायें चारों दिशाओं में बढ़ने देनी चाहिए। बेल के पेड़ों में विशेष छंटाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है परन्तु सूखी, कीड़ों एवं बीमारियों से ग्रसित टहनियों को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए। शुरू के वर्षो में नये पौधों के बीच खाली जगह में अंत: फसल लेते समय ऐसी फसलें न लें जिन्हें पानी की अधिक आवश्यकता हो और वह बेल के पौधों को प्रभावित करें। टांड की फसलें लगाकर उन्हें वर्षा ऋतु में पलट देने से भूमि की दशा में भी सुधार किया जा सकता है।
फलों की तुड़ाई
फल अप्रैल-मई माह में तोड़ने योग्य हो जाते है। जब फलों का रंग गहरे हरे रंग से बदलकर पीला हरा होने लगे तो फलों की तुड़ाई 2 सें.मी. डंठल के साथ करनी चाहिए। तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि फल जमीन पर न गिरने पायें। इससे फलों की त्वचा चिटक जाती है, जिससे फल भीतर से सड़ जाते है।
उपयोग
बेल एक लाभकारी फल है अत: इसके अधिकाधिक उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कच्चे फलों को मुरब्बा एवं कैंडी, या भुनकर खाने से पेचिश, भूख न लगना एवं अन्य पेट के विकारों से छुटकारा पाया जा सकता है। पके बेल के गूदे के पाउडर के प्रतिदिन दूध के साथ लेने से पुरानी जीर्ण संग्रहनी में लाभ पाया जा सकता है। गर्मी के मौसम में नियमित सेवन या शरबत बना कर सेवन अत्यंत लाभकारी होता है।