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काली मिर्च की खेती कैसे करे

काली मिर्ची का सेवन हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही फायदेमंद रहता है । खासतौर पर आँखों के लिए काली मिर्ची बहुत अच्छी होती है हम बात करें काली मिर्ची की है। व्रत उपवास में भी काली मिर्ची का सेवन किया जाता हैं । जैविक खेती की, तो काली मिर्ची की खेती करना ज्यादा मुश्किल नहीं होता है। आप आराम से काली मिर्ची की जैविक खेती कर सकते है।
जैविक खेती में फसलों में ज्यादा टाइम लगता है । कम से कम 18 महीने जैविक खेती में फ़सल को देने पड़ते है। फ़सल लगाने से लगभग 3 साल बाद काली मिर्ची की पहली फ़सल होना शुरू होता है। ऐसे पौधों के लिए लगभग 36 महीने का परिवर्तन काल होता है।
जो भूमि आप इस्तेमाल करने जा रहे है यदि उस पर किसी प्रकार के रसायनों का इस्तेमाल नहीं किया गया है तो ऐसी जमीन पर जल्दी ही खेती ही जा सकती हैं। परन्तु अगर काली मिर्च की फसल मिश्रित फसल के रूप में उगाई गई है, तब यह अति आवश्यक है कि सभी फसलों को जैविक उत्पादन विधि से करनी चाहिए।
काली मिर्च की खेती करने के लिए बागबानी पद्धति सबसे उत्तम घटक है। जैविक खेती को अजैविक खेतों से बहुत नुकसान होता है, अतः इससे बचाने के लिए उत्तम उपचार करने चाहिए। जैविक खेतों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। बहावदार ढलान वाले स्थानों पर बराबर के खेतों से पानी और रसायनों के आगमन को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय करना चाहिए। हमेशा छोटे खेतों को एक बाहरी आवरण देना चाहिए।
जैविक खेती में परंपरागत प्रजातियों का इस्तेमाल होता है। जो फ़सल को कीटों, सूत्रकृमियों तथा रोगों से बचाव करने में समर्थ होती हैं। क्योंकि जैविक खेती में किसी भी प्रकार का कृत्रिम रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक या कवकनाशक का उपयोग नहीं होता है। इसलिए उर्वरकों की कमी को पूरा करने के लिए फार्म की सभी फसलों के अवशेष, हरी घास, हरी पत्तियां, गोबर, तथा मुर्गी लीद आदि को कंपोस्ट के रूप में उपयोग करके मृदा की उर्वरता उच्च स्तर की बनाते हैं।
इन पौधों की आयु के अनुसार इनमें एफ.वाई.एम. 5-10 कि. ग्राम में प्रति पौधा केंचुआ खाद या पत्तियों के compost (5-10 कि.ग्राम प्रति पौधा) को छिड़क जाता है। मृदापरीक्षण के आधार पर फॉस्फोरस और पोटैशियम की न्यूनतम पूर्ति करने के लिए पर्याप्त मात्र में चूना, रॉक फॉस्फेट और राख का उपयोग किया जाता है।
इसके अतिरिक्त उर्वरता और उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए ऑयल केक जैसे नीम केक (1 कि.ग्राम/पौधा), कंपोस्ट कोयर पिथ (2.5 कि. ग्राम/पौधा) या कंपोस्ट कॉफी का पल्प (पोटैशियम की अत्यधिक मात्रा), अजोस्पाइरियलम तथा फॉस्फेट सोलुबिलाइसिंग जीवाणु का उपयोग किया जाता है। पोषक तत्वों के अभाव में फसल की उत्पादकता प्रभावित होती है। मानकता सीमा या संगठनों के प्रमाण के आधार पर पोषक तत्वों के स्त्रोत खनिज/रसायनों को मृदा या पत्तियों पर उपयोग कर सकते हैं।
जैविक खेती में रोगों कीटों, सूत्रकृमियों का प्रबंधन और जैव कीटनाशक, जैव नियंत्रण कारक,आकर्षण और फाइटोसेनीटरी उपायों का उपयोग करके किया जाता है। 21 दिनों के अंतराल में नीम गोल्ड (0.6%) को छिड़का जाता है, यह जुलाई से अक्टूबर के मध्य छिड़का जाता है। इससे पोल्लू बीट को भी नियंत्रण किया जा सकता है। शल्क कीटों को नियंत्रण करने के लिए अत्यधिक बाधित शाखाओं को उखाड़ कर नष्ट कर देना तथा नीम गोल्ड (0.6 %) या मछली के तेल की गंधराल (3%) का छिड़काव करना चाहिए।
कवक द्वारा उतपन्न रोगों का नियंत्रण ट्राइकोडरमा या प्सयूडोमोनस जैव नियंत्रण कारकों को मिट्टी में उचित वाहक मीडिया जैसे कोयरपिथ कंपोस्ट, सूखा हुआ गोबर या नीम केक के साथ उपचारित करके किया जा सकता है। साथ ही अन्य रोगों को नियंत्रित 1 % बोर्डियो मिश्रण तथा प्रति वर्ष 8 कि.ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से कॉपर का छिड़काव करके कर सकते है।
छोटे और सीमित उत्पादन करने वाले किसानों के लिए भारत सरकार ने स्वदेशी प्रमाणित प्रणाली बनाई है। जिसमें एपिडा द्वारा गठित प्रमाणित एजेंसिया वैध जैविक प्रमाण पत्र जारी करती है। इन प्रमाणित एजेंसियों द्वारा निरीक्षकों की नियुक्ति की जाती है।
वह खेतों में जाते है और निरीक्षण करके सारा ब्यौरा तैयार करते है जैसे कृषक खेत का मानचित्र, खेत का इतिहास, तुड़ाई, भंडारण, कीट नियंत्रण, गतिविधियों, उपकरणों की सफाई तथा लेबलिंग आदि ।
काली मिर्च की फ़सल 6 से 8 महीने में पक कर तैयार हो जाती है। मैदानी क्षेत्रों में इसे November . से `y के बीच और पहाड़ी क्षेत्रों में जनवरी से मार्च के बीच तोड़ा जाता हैं। इसकी तुड़ाई जमीन पर गिरने से पहले ही कर लेनी चाहिए क्योंकि यह जकब खुद टूट कर गिरती है तो ज्यादा नुकसान पहुँचाती हैं ।
काली मिर्च के फल को तोडने के पश्चात विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएं जैसे थ्रेसिंग, उबालना, सुखाना, सफाई, ग्रेडिंग तथा पैकिंग की जाती है । यह सभी बहुत ध्यान से की जानी चाहिए। काली मिर्च की गुणवत्ता बनी रहे इसके लिए काफी सावधानी बरतनी चाहिए। सभी प्रक्रिया अच्छे से होगी तो ही मिर्ची की गुणवत्ता सही बनी रहेगी।
थ्रेसिंग – इसमें परंपरागत विधि द्वारा काली मिर्च की बोरियों को स्पाइक से कृषक अपने पैरों से कुचलकर अलग करते हैं। यह बहुत ही अंशोधित, धीमी तथा अस्वस्थ्यकर विधि है। परन्तु आज कल कालिमिर्ची को स्पाइक से अलग करने के लिए 50 किलो ग्राम प्रति घंटा से 2500किलोग्राम प्रति घंटा की क्षमता वाले थ्रेसर का प्रयोग किया जाता है।
इसके बाद मिर्च की गुणवत्ता को बढ़ाने के किए इसे एक मिनट तक उबले पानी मे डालकर निकल लिया जाता है। जिससे सूखने के बाद सभी काली मिर्ची के एक जैसे रंग की हो जाती है। इससे सूक्ष्मजीवों का भी नाश होता है। 3 से 4 दिन बाद जब काली मिर्ची सूखती है, इसके बाद इसका बाहरी कवर हट जाता है, और गंदगी भी दूर हो जाती है।
जब काली मिर्ची को तोड़ते है तो इसमें 65 से 70 % तक पानी होता है। और इसे सुखाने के बाद 10 % तक रहे जाता है । इसे सुखाते वक़्त फनोलेस एन्जाइम का उपयोग करने से वातावरणीय आक्सीजन द्वारा एन्जाइम और फिनोलिक यौगिकों का ऑक्सीकरण के कारण हरी काली मिर्च का रंग काला हो जाता है।पहले इसे सूरज की धूप में ही सुखाया जाता था।
यदि इसमें 12 % से अधिक पानी रह जाता है तो इसके सड़ने की समस्या रहती है। जो कि मानव शरीर को नुकसान पहुचाती है। काली मिर्च की लगभग 33-37 % सूखी उपज प्राप्त होती है। के संस्था काली मिर्च को सुखाने के लिए यांत्रिक ड्रायर भी उपलब्ध कराते हैं जो बिजली से चलते हैं। इसके बाद ग्रेडिंग की प्रकिया होती है जिसमें काली मिर्च को फटकर साफ किया जाता है । जिससे सारी गंदगी उड़ कर बाहर चली जाती है। और काली मिर्च अच्छे से साफ हो जाती है ।
सफ़ेद काली मिर्च तैयार करने के लिए पकी हुई लाल काली मिर्च को 7 से 8 दिनों के लिए पानी मे भिगोकर रख दिया जाता है, जिसके बाद उसका बाहरी कवर हट जाता है, और को अंदर से सफ़ेद रंग की निकलती है इसके बाद उसे सूखा लिया जाता है। काली मिर्च और सफ़ेद मिर्च की अलग अलग पैकिंग की जाती है। इसकी पैकिंग के लिए साफ सुथरा मटेरियल इस्तेमाल करना चाहिए और प्लासिटक के बैग का इस्तेमाल काम करना चाहिए। काली मिर्ची खराब न हो इसके लिए इसे पूर्णतः सूखा कर ही इसका भंडारण करना चाहिए।