गीता के मूलमंत्र

गीता के मूलमंत्र

गीता के मूलमंत्र
अध्याय १
मोह ही सारे तनाव व विषादों का कारण होता है ।

अध्याय २
शरीर नहीं आत्मा को मैं समझो और आत्मा अजन्मा-अमर है ।

अध्याय ३
कर्तापन और कर्मफल के विचार को ही छोड़ना है, कर्म को कभी नहीं ।

अध्याय ४
सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके करना ही कर्म संन्यास है ।

अध्याय ५
मैं कर्ता हूँ- यह भाव ही अहंकार है, जिसे त्यागना और सम रहना ही ज्ञान मार्ग है ।

अध्याय ६
आत्मसंयम के बिना मन को नहीं जीता जा सकता, बिना मन जीते योग नहीं हो सकता ।

अध्याय ७
त्रिकालज्ञ ईश्वर को जानना ही भक्ति का कारण होना चाहिये, यही ज्ञानयोग है ।

अध्याय ८
ईश्वर ही ज्ञान और ज्ञेय हैं- ज्ञेय को ध्येय बनाना योगमार्ग का द्वार है ।

अध्याय ९
जीव का लक्ष्य स्वर्ग नहीं ईश्वर से मिलन होना चाहिये ।

अध्याय १०
परम कृपालु सर्वोत्तम नहीं बल्कि अद्वितीय हैं ।

अध्याय ११
यह विश्व भी ईश्वर का स्वरूप है, चिन्ताएँ मिटाने का प्रभुचिन्तन ही उपाय है ।

अध्याय १२
अनन्यता और बिना पूर्ण समर्पण भक्ति नहीं हो सकती और बिना भक्ति भगवान् नहीं मिल सकते ।

अध्याय १३
हर तन में जीवात्मा परमात्मा का अंश है- जिसे परमात्मा का प्रकृतिरूप भरमाता है, यही तत्व ज्ञान है ।

अध्याय १४
प्रकृति प्रदत्त तीनों गुण बंधन देते हैं, इनसे पार पाकर ही मोक्ष संभव है ।

अध्याय १५
काया तथा जीवात्मा दोनों से उत्तम पुरुषोत्तम ही जीव का लक्ष्य हैं ।

अध्याय १६
काम-क्रोध-लोभ से छुटकारा पाये बिना जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा नहीं मिल सकता ।

अध्याय १७
त्रिगुणी जगत् को देखकर दु:खी नहीं होना चाहिये, बस स्वभाव को सकारात्मक बनाने का प्रयास करना चाहिये ।

अध्याय १८
शरणागति और समर्पण ही जीव का धर्म है और यही है गीता का सार ।

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