कान की वैज्ञानिक देखभाल

कान की वैज्ञानिक देखभाल

कहते हैं बड़े कान पुरुषों के लिये भाग्यशाली होते हैं और छोटे कान स्त्रियों की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं। पशुओं की खोपड़ी के बाहरी बाजू के स्नायु ऐच्छिक होने के कारण उनके कानों में एक विशेषता यह होती है। कि पशु अपने कान जहाँ से आवाज आती है, उस दिशामें मोड़ लेते हैं, परंतु मनुष्य के स्नायु अनैच्छिक होने के कारण बाहरी कान का उपयोग आवाज की लहरों को एकत्र कर उन्हें कर्णनलिका (आडीटरी)-की ओर भेजने में ही होता है।

हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियोंमें से कान भी एक कोमल इन्द्रिय है, इसलिये इसकी विशेष सावधानी से रक्षा करनी चाहिये। कान से खिलवाड़ नहीं करना चाहिये अन्यथा यह छेड़-छाड़ जीवनभर के लिये बहरा बना सकती है। जिसे हम कान कहते हैं वह तो केवल सुनने वाले यन्त्रका बाहरी भाग है। इसमें कई पर्त और घुमाव होते हैं। बाहरी कान से एक नली अंदर (मध्य कान में) जाती है। हो सकता है इसी मार्ग से दिनभर में अनेक प्रकार की गंदगी और हानिकारक कीटाणु जमा हो जायँ। यदि यह गंदगी (जिसे कानका मैल भी कहते हैं) निरन्तर कुछ दिनों तक जमा होती रहे और साफ न की जाय तो यह कड़ी होकर रोग बन जाती है, जिससे कान में दर्द, फुसियाँ, यहाँ तक कि बहरापन भी हो सकता है। कान की नली के अन्त में एक झिल्ली होती है जिसे कान का पर्दा कहते हैं। कनपटी पर जोर से तमाचा मारने पर्दे पर आघात पहुँचता है, क्योंकि यह झिल्ली बहुत ही कोमल होती है, अत: कान का मैल निकालने के लिये कान में पिन, पेंसिल या कोई नुकीली वस्तु कभी भी नहीं डालनी चाहिये। बल्कि, कान में कुछ दिनों तक सरसों, तिल्ली, नारियल या जैतून किसी भी उपलब्ध तेल की मामूली गर्म एक-एक बूंद डालने से कान का कड़ा मैल मुलायम पड़कर ऊपर आ जायगा। अब इसे स्वच्छ रूई की फुरेरी से बड़ी सरलता से निकाला जा सकता है। यदि रोगी के कान तथा नली में सूजन हो तो उसे भीगने से बचाना चाहिये; जैसे पानी में तैरते समय वैसलीन या तेलसे भिगोई हुई रूई कानों में खोंस लेनी चाहिये । हमेशा ही स्नान के बाद कानों को अच्छी तरह पोंछ कर सुखा लेना चाहिये।

जुकाम से सावधान रहिये-

साधारण जुकाम में गला खराब हो जाने पर नमकीन पानी के गरारे दिन में कई बार करने चाहिये, ताकि यह रोग आगे नाक कान तक न फैलने पाये। अक्सर जुकाम बिगड़कर हमारे कोमल कानों को भी पीड़ित कर देता है, क्योंकि कान के अंदर का हिस्सा गले के बाहर के हिस्से के साथ जुड़ा हुआ है। सामान्यतः निगलने की क्रिया करते समय प्रत्येक बार वायु का आना-जाना बना रहता है, जिससे कर्णपटके दोनों ओर समान दबाव बना रहकर स्वर की ध्वनि कम्पन के लिये सुग्रहीता बनी रहती है। और जब जुकाम के कारण हमारा गला भी पीड़ित हो तो दाब-क्रिया-विधि में गड़बड़ होनेसे कान में दर्द हो जाना स्वाभाविक है। यदि आपको जुकाम हो तो बहुत जोर से नाक कभी न छिनकें। ऐसा करने से रोगके कीटाणु मध्य कानतक पहुँच सकते हैं। मध्य कान में दो नालियाँ जाती हैं-एक पीछे की तरफ और दूसरी नाक तथा गले की ओर। जुकाम होने पर इसके कीटाणु नाक और गलेसे इस दूसरी नलीमें पहुँच जाते हैं, जिससे वहाँ सूजन होने पर पीड़ा होने लगती है एवं लापरवाही करने पर यह फोड़ा बन जाता है, जिसकी पीड़ा के कारण रातको ठीकसे नींद भी नहीं आ पाती और रोगी बेचैन पड़ा रहता है। कान में प्रदाह होने, उसके बढ़ जाने और पूति दूषित (सेप्टिक) हो जाने से कान का मार्ग बंद हो सकता है, जिससे उसमें से होकर वायुका आगमन बंद हो जाता है, जबकि इस प्रकार को वायु का आगमन कर्णपट के दोनों ओर बाह्य कर्ण तथा मध्य कर्ण में समान दाब बनाये रखने के लिये आवश्यक होता है। इससे बहरापन आ जाता है। मध्य कर्ण में पूति दूषित उत्पन्न होने से जब उसे निकलने का मार्ग नहीं मिलता है तो उसके दबाव से कोमल झिल्ली फट जाती है और इस प्रकार कान से जीर्ण स्राव उत्पन्न हो जाता है।

मध्य कान में मवाद का बनना और इकट्ठा होना यदि शीघ्र न रोका जाय तो वह कानके पीछे की हड्डीतक पहुँचकर एक फोड़ेका रूप ले लेता है। इसमें यदि असावधानी की गयी अथवा गलत-सलत उपचार किया गया तो इससे मस्तिष्क में मवाद बनना प्रारम्भ हो जाता है। हो सकता है सिरका भारीपन और चकराना कान की भीतरी खराबी से हो, क्योंकि बारह नाडी-तन्तुओं की जोड़ियाँ मस्तिष्क में से निकलती हैं, उनमेंसे आठवाँ कान का संवेदवाहक नाड़ी-तन्तु है। मलेरिया बुखार में लगातार कुनैन-जैसी औषधि लेनेसे भी चक्कर आना, कम सुनायी पड़ना आदि रोग घर कर जाते हैं। इसी तरह इनफ्लुएंजा और खसरा जैसे छूतके रोगों के साथ-साथ कान में भी सूजन-जलन हो जाती है, जिससे कान में असहनीय पीड़ा होने लगती है। बच्चों के दाँत में कष्ट होने या नया दाँत निकलते समय भी कानमें दर्द हो जाता है, बिना परीक्षा किये यह पता लगाना कठिन है कि कान की पीड़ा सूजन और जलन की अधिकता के कारण है या दाँत में कष्ट होने के कारण। बच्चेके कान में पीड़ा होने पर किसी योग्य चिकित्सक का परामर्श लेना चाहिये। बच्चों अथवा बड़ों के कान सम्बन्धी दोषों को उत्पन्न न होने देना ही समस्या का सम्यक् समाधान है, क्योंकि एक बार कर्ण प्रणाली के क्षतिग्रस्त होने से उसे फिर से कार्यक्षम बना सकना अत्यन्त कठिन सिद्ध होता है। अतः सरल घरेलू एवं प्राकृतिक उपचारका सहारा लेकर स्वस्थ रहना चाहिये।
आइये जाने कान की देखभाल कैसे करें ..

 

कान की सरल प्राकृतिक चिकित्सा :

(१)  मुँह को पूरा खोलने और बंद करने की प्रक्रिया को नित्य १५-२० बार प्रातः-सायं दोहरा यें। इससे कानों की मांसपेशियों में लचीलापन आयेगा और कान स्वस्थ रहेंगे।
(२)  भोजन करते समय चबा-चबाकर खायें। जिससे मुखकी मांसपेशियों के साथ-साथ कान की नसोंका भी व्यायाम हो जाय।
(३)  गर्दन को दायें-बायें, आगे-पीछे तथा घड़ी के पेंडुलम की तरह और चक्राकार घुमाने से कानों एवं नेत्रों की नसों में लचीलापन आता है और यह क्रिया उनमें स्वस्थ | रखने की क्षमता बनाये रखती है। यह व्यायाम नित्य दस मिनट मेरुदण्ड को सीधा रखकर अवश्य करना चाहिये।
(४)  कान के दर्द में गर्म पानी की थैली को सूखे तौलिये में लपेटकर तकिये की तरह रखकर जिस कान में दर्द, सूजन हो उसी कानको उसपर रखकर १५-२० मिनट तक लेटे रहें। यदि दोनों कानों में पीड़ा हो तो बारीबारी से इसी प्रकार दोनों ओर करना चाहिये। उस समय कान में रूई खोंस लें।
(५)  मध्य कानसे पीप आने की अवस्था (Both infection and inflammation) में गर्म और ठंडे पानी की अलग-अलग थैली कान के पृष्ठ-भाग (जबड़े की रेखा के पीछे)-के पास रखकर बारी-बारी से गर्म और ठंडा सेंक दे सकते हैं।

कान के कुछ घरेलू उपचार :

चिकित्सकों के अनुसार निम्नलिखित उपचार भी लाभदायक रहे हैं

(१)  बच्चे (शिशु)-के कानमें दर्द हो तो माता का दूध कान में टपकाने से लाभ होता है।
(२) दूध की भाप से कान को सेंकने से कान की सूजन और दर्द में आराम मिलता है।
(३) नीम के पत्तों को पानी में औटाकर उनका बफारा कान में देनेसे कानका घाव और दर्द दूर होते हैं।
(४) लहसुन का रस २५ मिली और सरसों का शुद्ध तेल ५ मिली० दोनों मिलाकर पका लें। जब तेल मात्र शेष रह जाय तब ठंडा होने पर छान लें तथा रात को सोते समय एक-एक बूंद कान में डालें। इससे कान का दर्द, बहरापन आदि दोष दूर होते हैं।
(५)  गोमूत्र को छानकर निथार लें और शीशी में भर लें। नित्य चम्मच में कुछ बूंदें जरा-सा गर्म कर लें, फिर कान को साफ करके सुहाती-सुहाती दो-एक बूंदें दोनों कानों में डालते रहें। कान का दर्द अथवा बहरापन निश्चित ठीक होगा।
(६)  मदार का पीला पत्ता तोड़कर उसपर देशी घी चुपड़कर पत्ते को आग पर गरम कर उसका सुहाता-सुहाता गुनगुना रस कानमें टपका दें। अनुभूत प्रयोग है-दर्द में लाभ होगा। इसपर एक लोकोक्ति भी है-
पीले पात मदार के, घृत का लेप लगाय।
गरम गरम रस डालिये, कर्ण-दर्द मिट जाय॥

यौगिक क्रियाएँ :

(१) छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष सभी को ‘नेति-क्रिया’ की विधि समझकर नित्य करनी चाहिये। इससे जुकाम तो भागता ही है, कान का बहना भी बंद हो जाता है और बचपन तक का बहरापन तथा सायँ-सायँ की आवाज भी ठीक हो जाती है।
(२) हमारा स्वास्थ्य-कन्ट्रोल-केन्द्र हमारे भीतर ही है, ऐक्युप्रेशरका जानकार सही स्विच दबाकर रोगी का रोग दूर करता है। कान का रोग दूर करने के लिये दिन में नित्य ४५ मिनट, दोनों हाथों द्वारा शून्य मुद्रा करनी चाहिये। अन्य उपचार के साथ-साथ भी यदि इसे विश्वास के साथ किया जाय तो यह मुद्रा हितकारी सिद्ध होगी।

विधि-
 

 

चित्रमें बताये अनुसार, बीच की मध्यमा अंगुली को अँगूठे की गद्दी पर लगाकर, ऊपर से इसे अँगूठे से हलका दबाने से शून्य-मुद्रा बनती है। इसे दायें और बायें हाथों, दोनों ही से कम-से-कम ४५ मिनट नित्य करने से कान का बहना, कम सुनना आदि दोष ठीक हो जाते हैं। ठीक होनेपर इसका अभ्यास बंद कर देना चाहिये। यह मुद्रा इच्छानुसार कभी भी कर सकते हैं।

बचाव और सावधानियां :

कान के रोगी को निम्नलिखित आहार-विहार का सेवन हानिकारक है
(१) ठंडा स्नान, ठंडी हवा, पंखे की सीधी हवा आदि।
(२) तैराकी और सिर को भिगोकर स्नान।
(३) अधिक जागरण तथा अधिक वाचालता।
(४) कोलाहल पूर्ण वातावरण-यन्त्रों का शोर-शराबा आदि।
(५) अत्यधिक शीतलता प्रदान करनेवाले बर्फ आदि से प्रयोग युक्त पदार्थ, चिकनाई वाले व्यञ्जन, बासी भोजन, अधिक खट्टे एवं मिर्च-मसालों से तले हुए खाद्य पदार्थ आदि।
(६) वातानुकूलित वातावरण।

उपसंहार :

बचपन से ही प्रतिदिन कानों में एक-एक बूंद तेल डालते रहनेसे कान सदा नीरोग रहते हैं। श्रवणशक्ति को सदा के लिये सशक्त बनाये रखनेके हेतु नित्य प्रातः धूप सेवन करें ताकि कानों पर भी सूर्यका सुहाता-सुहाता प्राकृतिक सेंक होता रहे। दोषपूर्ण आहार-विहार से बचें और स्वस्थ बने रहें।

 
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