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मानस रहस्य और साधना (७)
मानस रहस्य और साधना (७)
कोउ अस संशय करै जनि, सुर अनादि जिय जानि।
ये देवता अनादि हैं, अजर-अमर हैं, अलौकिक हैं। तो इस तरह से इनका समाधान ऐसे नहीं मिल सकता है। जब हम साधना में उतरेंगे, तो समझ में आयेगा कि बाहर की दुनिया के अलावा एक अंतर्जगत भी है। शरीर जो यह दिखता है, यह तीन हिस्सों में बंटा है। 1. स्थूल शरीर, 2. सूक्ष्म शरीर, 3. कारण शरीर। स्थूल शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश पाँच तत्वों का है। सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना है जो है तो स्थूल के साथ, लेकिन उससे पृथक है। सो जाने पर यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीरके साथ नहीं रहता। मरने पर, स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर छोड़ देता है। इसलिए मानना तो पड़ेगा, कि दोनों अलग-अलग हैं।और उसके अन्दर कारण शरीर, जो बोल रहा है, यह अलग है। स्थूल शरीर का अधिष्ठाता शंकर। सूक्ष्म का ब्रह्मा, और कारण का विष्णु है। तीन शरीरों के तीन अध्यक्ष होते हैं। ये मिल कर काम करते हैं। इसलिए तीनों शरीर मिलकर एक हो जाते हैं, अलग रहते हुये भी। अब इसमें एक सजातीय अवयवों का समूह है। और एक विजातीय पार्टी है। तो यह ब्रह्मा तो दोनों को बनाता है। सजातीय-विजातीय दोनों का है वह।
तो सृष्टि में संतुलन बनाये रखना उसका काम है। बताओ अब दुनिया में लड़की ही लड़की पैदा हो जायें, तो काम कैसे चलेगा ? संतुलन बिगड़ न जायेगा ? इसलिए ब्रह्मा रावण, कुम्भकरण को भी वरदान देता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विजातीय तत्व, और ज्ञान, वैराग्य, विवेक, सन्तोष, क्षमा, दया आदि सजातीय, दोनों रहेंगे। तभी इस संसार का संचालन, ईश्वरीय संविधान के अनुसार होता है। इसलिए जो भी काम करे, उसमें ब्रह्मा का आशीर्वाद ज़रूरी हो जाता है। हम जब अन्तःकरण के स्तर पर साधना में उतरते हैं, तो हमारे अच्छे विचारों को भी उसका आशीर्वाद मिलता है, और यदि बुरे विचार आते हैं, तो उन्हें भी वह आशीर्वाद दे देगा।जब हम त्याग की वृत्ति अपने में लावेंगे, तो वह ब्रह्मा हमारे त्याग में वृद्धि करेगा, और यदि हम मोह को लायेंगे, तो मोह की वृद्धि कर देगा। क्रोध की वृद्धि कर देगा। इसलिए उसने रावण को, कुम्भकरण को, और विभीषण को, उनकी रुचि के अनुसार आशीर्वाद दिया। अध्यात्म में रावण मोह है। मोह की वृत्ति हमारे अन्दर बढ़ जाती है। यही उसका तपस्या करना और वरदान पाना है। क्रोध तो बड़ा भयंकर होता है न ? मोह में क्या है-मेरा है, मेरा है।बढ़ने पर वैसा विस्तार नहीं होगा, जैसा क्रोध में होगा। क्रोध तो सब चौपट कर देगा। सबको खा जायेगा। तो सरस्वती के द्वारा उसकी बुद्धि में परिवर्तन कर दिया, और कुम्भकरण ने 6 माह सोने का वर मांगा। उसे वर मिला-6 माह सोओ, और एक दिन के लिए जागो। तो यह एक महात्मा के हृदय की संरचना है। यह बाहर के इतिहास में ऐसी घटना हुई है कि नहीं, इससे हमें मतलब नहीं है। हुई भी है, तो पीछे हुई होगी। हमें अपने अन्तःकरण में, जहां से हमें मतलब है, वहां से लेना है। इसमें यह क्रोध है। क्रोध बहुत भयानक है। लेकिन यह हर समय बना नहीं रहता है। कुछ समय रहता है, फिर शान्त हो जाता है। 6 माह सोने का यह अर्थ है, कि हमारे अन्दर क्रोध निरन्तर जाग्रत रहने वाली बुराई नहीं है। लेकिन जब क्रोध जाग्रत होता है, तब विध्वंश कर देता है। सन् 62 में चीन और भारत में जाग्रत हुआ, युद्ध हुआ और पचासों हजार सैनिक मारे गये। यही तो कुम्भकरण के विषय में लिखा है। जब एक दिन को जागता था, तो हजारों घड़े मदिरा, हजारों भैसें खा-पीकर, विध्वंश करके, फिर सो जाता था। यही तो हुआ हिमालय में। थोड़े समय के लिए जागा, पचास हजार को खा गया। फिर सो गया, बपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका, रचित मन मय मनुज रुप धारी।। मोह के अधीन है- मन। मैं मेरा यही मोह है। मन इसी में लगा रहता है। इस तरह से इसको अन्दर से लेना पड़ेगा। लोभ नारान्तक है। कपट कालनेमि है। अभिमान अहिरावण है। इसी अन्तःकरण में एक तरफ विजातीय रहते हैं। इसी में दूसरी तरफ सजातीय तत्व हैं।सूक्ष्म शरीर में अनुगत चेतन का प्रतिबिम्ब जो ब्रह्मा है, वह दोनों को वरदान देता है। अब तुम्हें चाहिये कि बुराई और अच्छाई में लड़ाई रच लो। अच्छाइयों से बुराइयों को जीत लो। और जब बुराई नष्ट हो जाय, तो अच्छाइओं को भी बिदा कर दो। अगर इनका त्याग नहीं किया गया, तो अन्योन्याश्रय दोष से फिर विजातीय तत्व जीवित हो जाते हैं। यह आटोमैटिक सिस्टम है। इसलिए उस अवस्था में सजातीय पार्टी का भी त्याग करे। फिर त्याग का भी त्याग कर दे। ज्ञान से जब अज्ञान को जीत लिया जाता है, तो अज्ञान, ज्ञान में बदल जाता है। जब ज्ञान का त्याग कर दिया जाता है, तो विशेष ज्ञान बन जाता है, और जब उसका भी त्याग किया गया, तो तुर्या मिल गया। हम आगे निकल गये। हम सर्कुलेशन से बाहर हो गये। इतना करना है। यह साधना का कोर्स है। हरिः ओम फिर दो तीन साल बाद पाकिस्तान के युद्ध के रूप में फिर जागा। कितना बड़ा आकार है इस क्रोध का ? ऐसे होता है-क्रोध। यह तो बाहर की बातें हैं। हम तो अन्तःकरण की बात करते हैं। तुम तो मानव हो, मानव के अन्दर अनेक देवता और अनेक राक्षस रहते हैं। इन सभी की अपनी-अपनी क्षमताएं है। सभी को वरदान मिले हुये हैं। किसी को ब्रह्मा का, किसी को देवताओं ऋषियों से वरदान मिला है। तो देखो शरीर ही ब्रह्माण्ड है। इसमें आसक्ति लंका है। मोह रावण है, क्रोध कुम्भकरण, काम रूपी मेघनाद इसमें रहते हैं। काम मेघनाद है। यह बड़ा प्रभावशाली तत्व है। भगवान राम ने जब लंका विजय कर लिया, तो ब्रह्मा आदि देवता और ऋषि मुनिआये उनके पास। उनमें कुम्भज श्रेष्ठ थे। राम की स्तुति करने आये। उनसे राम ने यह प्रश्न किया, कि मेरे इस वनवास में कोई बड़ी भारी संतुलन बिगाड़ने वाली स्थिति नहीं आयी, लेकिन इस मेघनाद ने डावाँडोल कर दिया है। उसमें कौन सी ऐसी बात है ? आप लोग बताइये।
मेघनाद को इस तरह से राम ने सबसे ज़्यादा ताकतवर माना है। यह रावण से अधिक बलवान था। था तो उसका लड़का, लेकिन उससे अधिक शक्तिशाली था। रावण को इन्द्र ने जीत लिया था- तो फिर इसने जाकर इन्द्र को हराया और अपने पिता को छुड़ा लाया था। इसलिये इसको टाइटिल (उपाधि) मिली थी- इन्द्रजीत कहलाता था। बादल के समान इसकी गर्जना थी, इसलिए मेघनाद कहलाता था। यह मेघनाद है, काम। इसका आकार, प्रकार रावण और कुम्भकर्ण की तरह बड़ा और भयानक नहीं है। कहीं आया तो नहीं ऐसा ? दो हाथ, दो पैर का साधारण सा दिखाया जाता है। लेकिन सबसे ज़्यादा बलवान-
मुनि विज्ञान धाम मन, करै निमिष महं क्षोभ।
बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी, जहां स्त्री के सम्पर्क में आये, तो नष्ट हो गये। उनकी सारी तपस्या नष्ट हो जाती है। इस तरह से कामदेव सबसे बलवान है। अब देखिए गोस्वामी जी ने संरचना किस तरीके से किया है। कुम्भकर्ण को सबसे ज्यादा भयंकर और लम्बा चौड़ा दिखाया है, जो क्रोध के मामले में ठीक बैठता है। देश-विदेश, चीन पाकिस्तान तक विस्तार हो जाता है इसका। मोह रावण को भी दस सिर, बीस भुजा वाला दिखाया है। राजा है मोह। हनुमान ने लंका जला दिया, रावण ने मय दानव से कहा, फिर वैसी ही बना दिया। यह मन ही, मय दानव है। विनय पत्रिका में गोस्वामी जी कहते हैं -
बपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका, रचित मन मय मनुज रुप धारी।। मोह के अधीन है- मन। मैं मेरा यही मोह है। मन इसी में लगा रहता है। इस तरह से इसको अन्दर से लेना पड़ेगा। लोभ नारान्तक है। कपट कालनेमि है। अभिमान अहिरावण है।इसी अन्तःकरण में एक तरफ विजातीय रहते हैं। इसी में दूसरी तरफ सजातीय तत्व हैं। सूक्ष्म शरीर में अनुगत चेतन का प्रतिबिम्ब जो ब्रह्मा है, वह दोनों को वरदान देता है। अब तुम्हें चाहिये कि बुराई और अच्छाई में लड़ाई रच लो। अच्छाइयों से बुराइयों को जीत लो। और जब बुराई नष्ट हो जाय, तो अच्छाइओं को भी बिदा कर दो।अगर इनका त्याग नहीं किया गया, तो अन्योन्याश्रय दोष से फिर विजातीय तत्व जीवित हो जाते हैं। यह आटोमैटिक सिस्टम है। इसलिए उस अवस्था में सजातीय पार्टी का भी त्याग करे। फिर त्याग का भी त्याग कर दे। ज्ञान से जब अज्ञान को जीत लिया जाता है, तो अज्ञान, ज्ञान में बदल जाता है। जब ज्ञान का त्याग कर दिया जाता है, तो विशेष ज्ञान बन जाता है, और जब उसका भी त्याग किया गया,तो तुर्या मिल गया। हम आगे निकल गये। हम सर्कुलेशन से बाहर हो गये। इतना करना है। यह साधना का कोर्स है।
हरिः ओम