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एक अरब साल पुरानी गुरुत्व तरंगों की कहानी
करीब एक अरब वर्ष पहले अंतरिक्ष में दो ब्लैक होल आपस में टकराकर एक-दूसरे में विलीन हो गए। इस प्रक्रिया में उत्पन्न् कंपन से गुरुत्व तरंगें निकलीं जो अंतरिक्ष में भ्रमण करते हुए पृथ्वी पर पहुंचीं और गत सितंबर में वैज्ञानिकों ने पहली बार इन तरंगों की 'चहक" सुनी। वैज्ञानिक इन तरंगों को 'ग्रेविटेशनल वेव्स" भी कहते हैं। इन तरंगों के अस्तित्व के बारे में पिछली एक सदी से अटकलें लगाई जा रही थीं। इनके अस्तित्व के बारे में सर्वप्रथम सैद्धांतिक परिकल्पना अल्बर्ट आइंस्टीन ने की थी। गुरुत्व तरंगों की खोज के लिए स्थापित वेधशाला लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रेविटेशनल वेव ऑब्जर्वेटरी (लिगो) के कार्यकारी निदेशक डेविड रिट्ज ने पिछले दिनों वाशिंगटन में गुरुत्व तरंगों की खोज की ऐतिहासिक घोषणा की। यह खोज ब्रह्मांडीय भौतिकी और खगोल विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। इन तरंगों के अस्तित्व की निर्णायक रूप से पुष्टि करना सहज नहीं था। वैज्ञानिक पिछले पचास वर्षों से इन्हें खोजने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन इसके लिए उनके पास सटीक उपकरण नहीं थे। अत्यंत संवेदी उपकरण तैयार करने में उन्हें करीब 25 वर्ष लगे। इन्हीं उपकरणों की मदद से अंतरिक्ष में होने वाली असंगतियों को सूक्ष्मतम पैमाने तक ढूंढ़ पाना संभव हो सका।
प्रत्येक ब्लैक होल का द्रव्यमान करीब 30 सूर्यों के बराबर था। जैसे ही गुरुत्वाकर्षण की वजह से दोनों ब्लैक होल एक-दूसरे के करीब आए, उन्होंने तेजी से एक-दूसरे की परिक्रमा आरंभ कर दी। आपस में टकराने से पहले उन्होंने प्रकाश की गति हासिल कर ली थी। उनके उग्र विलय से गुरुत्व तरंगों के रूप में प्रचंड ऊर्जा निकली जो सितंबर में पृथ्वी पर पहुंची। एक अरब साल पहले निकली ऊर्जा सितंबर में पृथ्वी पर पहुंची है। जरा सोचिए अंतरिक्ष में कितनी दूर यह टक्कर हुई होगी।
भौतिकविदों का कहना है कि सितंबर में पृथ्वी पर पहुंचने वाली तरंग दो ब्लैक होल के विलय से पूर्व अंतिम क्षण में उत्पन्न् हुई थी। अल्बर्ट आइंस्टीन ने भविष्यवाणी की थी कि दो ब्लैक होल के टकराने पर गुरुत्व तरंगें उत्पन्न् होंगी, लेकिन अभी तक किसी ने इनका पर्यवेक्षण नहीं किया था। दिलचस्प बात तो यह भी है कि अभी तक किसी को भी दो ब्लैक होल के बारे में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिला था। ब्लैक होल अंतरिक्ष का वह क्षेत्र है, जहां शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण के कारण वहां से प्रकाश बाहर नहीं निकल सकता। इसमें गुरुत्वाकर्षण बहुत ज्यादा इसलिए होता है, क्योंकि पदार्थ को बहुत छोटी जगह में फिट होना पड़ता है। ऐसा तारे के नष्ट होने की स्थिति में होता है। चूंकि यहां से प्रकाश बाहर नहीं आ सकता, इसलिए लोग इन्हें नहीं देख सकते। ये अदृश्य होते हैं। ब्लैक होल छोटे और बड़े दोनों हो सकते हैं। वैज्ञानिकों का खयाल है कि सबसे छोटे ब्लैक होल एक अणु जितने छोटे हैं। ये ब्लैक होल भले ही छोटे हों, लेकिन उनका द्रव्यमान एक पहाड़ के बराबर होता है। बड़े ब्लैक होल 'स्टेलर" कहलाते हैं। उनका द्रव्यमान सूरज के द्रव्यमान से 20 गुना तक ज्यादा होता है। सबसे बड़े ब्लैक होल 'सुपरमैसिव" कहलाते हैं, क्योंकि उनका द्रव्यमान 10 लाख सूर्यों से भी ज्यादा होता है। हमारी मिल्की-वे आकाशगंगा में सुपरमैसिव ब्लैक होल का नाम सैगिटेरियस ए है। इसका द्रव्यमान 40 लाख सूर्यों के बराबर है।
गुरुत्व तरंगों की खोज से पहले ब्लैक होल का पता लगाना मुश्किल था, क्योंकि ये प्रकाश उत्पन्न् नहीं करते, जबकि सभी खगोलीय उपकरण प्रकाश का इस्तेमाल करते हैं। यह सफल खोज दुनिया भर के वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत का नतीजा है जिनमें भारतीय वैज्ञानिक भी शामिल हैं। ब्रह्मांड को अभी तक हमने सिर्फ प्रकाश में देखा है, लेकिन वहां जो घटित हो रहा है, उसका हम सिर्फ एक हिस्सा ही देख पा रहे हैं। गुरुत्व तरंगें ब्रह्मांड की घटनाओं के बारे में बिलकुल अलग किस्म की जानकारी देती हैं। वैज्ञानिकों ने अब अमेरिका स्थित लिगो वेधशाला के अत्याधुनिक डिटेक्टरों के जरिए इन तरंगों को 'सुनने" का एक नया तरीका खोज लिया है। इससे उन घटनाओं और प्रक्रियाओं को खोजने में मदद मिलेगी, जिन्हें हमने अभी तक नहीं देखा है।
गुरुत्व तरंगों पर अनुसंधान से भारत का संबंध भी बहुत पुराना है। पुणे में 1988 में इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर ऑफ एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आईयूसीएए) की स्थापना के बाद उसके प्रथम अध्यक्ष प्रो.जयंत नार्लीकर और उनके सहयोगी संजीव धुरंधर ने भारत में गुरुत्व तरंगों पर अनुसंधान के लिए फंडिंग का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वे अधिकारियों को इसके लिए राजी नहीं कर सके थे। अधिकारियों को इतने बड़े प्रोजेक्ट को कार्यरूप देने की उनकी 'विश्वसनीयता" पर पूरा भरोसा नहीं था। बहरहाल प्रो.नार्लीकर ने अंतरराष्ट्रीय टीम में शामिल भारतीय वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए गुरुत्व तरंगों की खोज को एक शानदार उपलब्धि बताया है। प्रोजेक्ट पर काम करने वाली भारतीय वैज्ञानिकों की 'इंडिगो" टीम ने अमेरिका में स्थित दो गुरुत्व तरंग डिटेक्टरों से प्राप्त डेटा के विश्लेषण के लिए विधियां विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। आईयूसीएए परिसर में इस डेटा के विस्तृत विश्लेषण के लिए एक विशेष कंप्यूटर भी स्थापित किया जा रहा है।
अब भारतीय वैज्ञानिकों को देश में ही गुरुत्व तरंगों पर गहन अनुसंधान करने का मौका मिलेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक अत्याधुनिक गुरुत्व तरंग वेधशाला स्थापित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। यह अमेरिका की लिगो वेधशाला के सहयोग से स्थापित की जाएगी। भारत की लिगो परियोजना का संचालन परमाणु ऊर्जा विभाग और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा किया जाएगा।
मुकुल व्यास -
-लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।