क्या यंत्र समाधि प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं?

क्या यंत्र समाधि प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं?

 एक मित्र ने और पूछा है कि स्लेटर ने चूहे के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड्स डालकर उसके मस्तिष्क के विशेष तंतु कंपित करके संभोग का आनंद दिलाया। समाधि भी अस्तित्व से एक तरह का संभोग है। क्या यह संभव नहीं है कि मस्तिष्क के कोई तंतु समाधिस्थ अवस्था में कंपित होते हों? और इनकी वैज्ञानिक व्यवस्था की जा सके, तो फिर साधारण आदमी को भी उसके समाधि वाले तंतुओं को कंपित करके समाधि का अनुभव दिया जा सकता है। फिर साधना की, योग की कोई जरूरत न रहेगी। योग तो कहता है कि समाधि को उपलब्ध करने वाला सहस्रार चक्र तक मस्तिष्क में छिपा हुआ है!

 

यंत्र और समाधि

 

निश्चित ही, स्लेटर जैसे मनोवैज्ञानिकों का यही खयाल है कि समाधि भी यंत्रों के द्वारा पैदा की जा सकती है। न केवल खयाल है, बल्कि यंत्र भी निर्मित हो गए हैं। न केवल यंत्र निर्मित हो गए हैं, हजारों-लाखों लोग पश्चिम में यंत्रों का उपयोग भी कर रहे हैं। कोई हजार रुपए की कीमत का यंत्र है। उस यंत्र से आप मस्तिष्क में तार जोड़ देते हैं, यंत्र को चला देते हैं और यंत्र आपके मस्तिष्क के भीतर की तरंगों की खबर देने लगता है।

एक खास तरंग, जिसको पश्चिम में वे अल्फा कहते हैं, अल्फा तरंग में आदमी ध्यान की अवस्था में पहुंच जाता है। तो यंत्र खबर देने लगता है कि आपमें कब अल्फा पैदा होती है। और जैसे ही अल्फा पैदा होती है, यंत्र आवाज करता है और आप समझ जाते हैं कि अल्फा तरंग पैदा हो गई। अब इसी तरंग में आपको ठहरे रहना है।

यंत्र की सहायता से आप थोड़े दिन में ठहरना सीख जाते हैं। बहुत कठिन नहीं है। दो-चार दिन में आप ठहरना सीख जाते हैं। क्योंकि आपको अंदाज हो जाता है; यंत्र खबर देता है कि ठीक यही चीज अल्फा है। क्योंकि यंत्र आवाज करता है और आप पहचान जाते हैं कि अल्फा भीतर पैदा हो रही है। बस, अब इसी तरंग में रुक जाना है। एक दो-चार दिन के अभ्यास से...।

मेरे पास वह यंत्र है। इधर मैं उस पर प्रयोग किया हूं। दो-चार दिन के अभ्यास से आप ध्यान अनुभव करने लगते हैं। बहुत शांति और विश्राम अनुभव होता है। ध्यान जो लोग करते हैं, जब वे ध्यान की अवस्था में हैं, तब यह यंत्र लगा दिया जाए, तो फौरन अल्फा की आवाज देना शुरू कर देता है।

तो अब तो पश्चिम में वे इसकी भी जांच करने में सफल हो गए हैं कि कौन आदमी ध्यान में है, कौन नहीं है। अब आप झूठा दावा नहीं कर सकते, क्योंकि यंत्र खबर देगा कि आप ध्यान में हैं या नहीं हैं। आप ऐसे ही नहीं कह सकते कि मैं ध्यान में हूं। क्योंकि वह यंत्र को धोखा नहीं दिया जा सकता। आप धोखा देने की कोशिश करेंगे, फौरन अल्फा चली जाएगी, क्योंकि धोखा देने का खयाल भी बाधा है। जरा-सा कोई विचार आएगा, यंत्र आवाज बंद कर देगा। जैसे ही विचार बंद होंगे, यंत्र आवाज देने लगेगा।

इस यंत्र पर काफी काम चल रहा है। लेकिन इस यंत्र से जो पैदा होता है, वह भी यात्रारहित मंजिल है। और इसलिए एक बहुत मजे की बात खयाल में वहां भी आनी शुरू हो गई है कि इस यंत्र से भी अल्फा पैदा हो जाती है और ध्यान करने वालों को भी अल्फा पैदा होती है। लेकिन ध्यान करने वाला कहता है, परम आनंद मुझे मिल रहा है। और यह अल्फा, यंत्र से पैदा हुआ वाला आदमी कहता है, मुझे थोड़ी शांति मालूम पड़ रही है। दोनों के वक्तव्य में बुनियादी भेद है।

ध्यान करने वाला कहता है, मुझे परम आनंद मिल रहा है। और यंत्र दोनों के बाबत एक ही खबर दे रहा है कि अल्फा! यंत्र में कोई फर्क नहीं है। जो समाधि का प्रयोग कर के पहुंचा है उसके बाबत, और जो केवल मशीन के साथ तारतम्य बिठाया है उसके बाबत, यंत्र एक-सी खबर देता है। लेकिन मशीन से जिसने सीखा है, वह कहता है, मुझे थोड़ी शांति मालूम पड़ती है। और जो ध्यान से आया है, वह कहता है, मुझे आनंद मालूम पड़ता है। तब बड़ी कठिनाई है।

तब अभी विचारकों को संदेह पैदा होने लगा है कि यंत्र से जो चीज पैदा हो रही है, वह शायद बाह्य रूप से एक-सी है, लेकिन भीतरी हिस्से पर भिन्न है। क्योंकि जिस आदमी ने तीस साल ध्यान किया है, वह कहता है, मुझे परम आनंद की, परम ब्रह्म की अनुभूति हो रही है। और यह मशीन से तो तीन महीने में उतनी स्थिति पैदा हो जाएगी, जितनी बुद्ध को वर्षों में पैदा हुई है। महावीर को वर्षों में--वर्षों में भी कहना ठीक नहीं, जन्मों में पैदा हुई। उतना तो तीन महीने में यह यंत्र पैदा कर देगा।

लेकिन जिन लोगों में तीन महीने में इस यंत्र ने वह हालत पैदा कर दी, वे बुद्ध नहीं हो जाते। न तो उनके जीवन में कोई परिवर्तन होता है, न उनके जीवन में कोई सत्य, न उनके जीवन में कोई प्रफुल्लता, न उनके जीवन में कोई उत्सव आता है। उनके जीवन में वह सुगंध नहीं दिखाई पड़ती, जो बुद्ध के जीवन में दिखाई पड़ती है।

तो कुछ बुनियादी भीतरी फर्क होगा। वह फर्क क्या है? क्योंकि यंत्र तो कहता है, दोनों में एक-सी तरंगें पैदा हो रही हैं। वह फर्क है, यात्रा का फर्क। वह फर्क है, असली फूल और बाजार से खरीद लाए फूल--अपने बगीचे में पैदा किए गए फूल और जाकर बाजार से एक फूल खरीद लाएं हैं, टूटा हुआ, उसमें जो फर्क है।

यह जो यंत्र से पैदा हो रहा है, यह ऊपर से चेष्टित और आरोपित है। मन यह अभ्यास सीख लेगा, और इस यंत्र के साथ तालमेल बिठा लेगा। तालमेल बैठ जाने से शांति मालूम पड़ेगी। और जिन लोगों को अशांति से तकलीफ है, उनके लिए यंत्र उपयोगी है। लेकिन ध्यान की पूर्ति नहीं होगी। ध्यान की पूर्ति असंभव है।

इसको हम ऐसा समझें। स्लेटर का जो प्रयोग मैंने आपसे कहा कि चूहे को उसने संभोग का प्रयोग करा दिया यंत्र से, और चूहा प्रयोग करता चला गया। इसमें भी वही फर्क है।

अगर किसी स्त्री से आपका प्रेम है--जो जरा मुश्किल बात है। क्योंकि आमतौर से तो लोग सोचते हैं कि सभी को प्रेम है। प्रेम इतनी ही कठिन बात है, जैसा कभी-कभी कोई वैज्ञानिक होता है। कभी-कभी कोई कवि होता है। कभी-कभी कोई दार्शनिक होता है। कभी-कभी कोई चित्रकार होता है। ऐसे ही कभी-कभी कोई प्रेमी होता है। प्रेमी भी सब लोग होते नहीं।

अगर सच में ही किसी पुरुष को किसी स्त्री से प्रेम है, तो उस स्त्री के साथ संभोग में जो आनंद उसे उपलब्ध होगा, वह स्लेटर का यंत्र पैदा नहीं करवा सकता। हां, अगर आपको स्त्री से कोई प्रेम नहीं है और आप किसी वेश्या के पास संभोग करने चले गए हैं, तो जो आपको क्षणभर की जो प्रतीति होगी संभोग में--मुक्तता की, खाली हो जाने की, बोझ के उतर जाने की--वह स्लेटर के यंत्र से भी हो जाएगी।

यंत्र के द्वारा भी वह संभोग पैदा हो सकता है, जो उस व्यक्ति के साथ आपको पैदा होता है, जिससे आपका कोई गहरा प्रेम नहीं है। लेकिन अगर प्रेम है, तो यंत्र फिर उस संभोग को पैदा नहीं कर सकता।

अगर आपको सिर्फ मन की थोड़ी-सी शांति चाहिए, जो कि ट्रैंक्वेलाइजर से भी पैदा हो जाती है, तो वैसी ही शांति आपको अल्फा तरंगें पैदा करने वाले यंत्र से भी पैदा हो जाएगी।

लेकिन अगर ध्यान आपकी कोई आत्मिक यात्रा है; जैसी बुद्ध की खोज है, महावीर की खोज है, ऐसी अगर कोई खोज है, जिस पर आपका पूरा जीवन समर्पित है; यह कोई शांति की तलाश नहीं है, सत्य की तलाश है; यह केवल दुख और बोझ के कम होने की बात नहीं है, आनंद में स्थापित होने की बात है; यह कोई कामचलाऊ जिंदगी ठीक से चल सके, इसलिए थोड़ी शांति रहे, ऐसी व्यवस्था नहीं है, बल्कि परम मुक्ति कैसे अनुभव हो, उसकी खोज है; तो फिर यंत्र से यह आनंद, यह समाधि, यह ध्यान उपलब्ध नहीं होगा।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कोई यंत्र का विरोध कर रहा हूं। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि यंत्र का भी उपयोग करना अच्छा है। उससे कम से कम शांति तो मिलेगी। और यह भी खयाल आएगा कि जब यंत्र से इतनी शांति मिल सकती है, तो ध्यान से कितनी संभावना हो सकती है और समाधि से कितना...!

एक झलक उससे मिलेगी, वह झलक अपने आप में बुरी नहीं है। लेकिन अगर कोई सोचता हो कि यंत्र योग की जगह ले लेंगे, तो भूल में है। कोई अगर सोचता हो कि यंत्र प्रेम की जगह ले लेंगे, तो भूल में है।

वह जो आंतरिक है, उसकी जगह कोई भी यंत्र नहीं ले सकता। लेकिन अगर आपकी जिंदगी सिर्फ बाह्य है, तो यंत्र उसकी जगह ले सकते हैं।

 

 

ओशो, गीता दर्शन,

 

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