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ज़्यादा सफ़ाई हो सकता है ख़तरनाक?
क्या आप रोज़ सुबह स्नान करते हैं या कुछ दिन के अंतराल पर? क्या आप अपनी बेडशीट हर सप्ताह बदलते हैं या तब तक इस्तेमाल करते हैं जब तक वह मैली न हो जाए?
आपके तौलिए कैसे हैं- नए या फिर काफ़ी पुराने? आप उन्हें हर शनिवार साफ़ करते हैं या फिर जब तक वे पूरी तरह गंदे न हो जाएं?
जी हां, बात सफ़ाई की हो रही है. दरअसल हमारे साबुन बैक्टीरिया रोधी होते हैं. घरों में इस्तेमाल होने वाले क्लीनर्स भी 99.9 फ़ीसदी कीटाणुओं को खत्म कर देते हैं.
आम धारणा यही है कि बैक्टीरिया, कीटाणु अच्छे नहीं होते.
कुछ वैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि ज़्यादा सफ़ाई से रहने से ही अस्थमा और एलर्जी जैसी बीमारियां होती हैं और पिछले 20 साल में ये ख़ासी बढ़ रही हैं.
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तो क्या हमें ज़्यादा सफ़ाई में भी एक संतुलित रास्ता अपनाना चाहिए.
19वीं सदी में जर्मन फ़िज़ीशियन रॉबर्ट कोच ने स्पष्ट किया कि कुछ बैक्टीरिया के चलते ख़ास तरह की बीमारियां होती हैं. तब से सफ़ाई और स्वच्छता ने हमारी सेहत को बेहतर बनाया है.
वैसे सारे बैक्टीरिया ख़राब नहीं होते. कुछ तो काफ़ी उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए बेहतर होते हैं.
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ये वैसे बैक्टीरिया होते हैं जो विटामिन को हमारी पेट और आंतों तक पहुंचाते हैं. हानिकारक रोगाणुओं से हमारी त्वचा की रक्षा करते हैं. जैविक वेस्ट को नष्ट करते हैं. इतना ही नहीं, हवा में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन का स्तर क़ायम रखने में मदद करते हैं. वे पृथ्वी को जीवनलायक ग्रह बनाए रखने में योगदान देते हैं.
1989 में ब्रिटिश चिकित्सक डेविड स्ट्राचान ने सबसे पहले बताया कि अगर बचपने में आप संक्रमण के शिकार हुए हों, तो बाद में एलर्जी के ख़िलाफ़ आपके शरीर को मदद मिलती है. इसे हायजीन हाइपोथीसिस के नाम से भी जाना जाता है.
न्यूयॉर्क के रसेल सेज कॉलेज की जीवविज्ञानी डोरॉथी मैथ्यूज़ के मुताबिक़ हमारा शरीर उपयोगी रोगाणुओं के चलते भी ओवररिएक्ट कर सकता है क्योंकि हमारी प्रतिरोधी क्षमता इनके साथ सहजीवन के तरीक़े भूल चुकी होती है.
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हमारे शरीर की प्रतिरोधी क्षमता किसी किसान की तरह काम करती है. वह एक ओर हमारे शारीरिक विकास, मानसिक विकास, मेटाबॉलिज़्म, दिमाग़ में काम करने वाले रोगाणुओं को मदद करती है. वहीं, दूसरी ओर ख़तरनाक रोगाणुओं को बाहर भी करती रहती थी.
बेकर प्रोफ़ेशनल एजुकेशन स्कूल के माइक्रोबायलॉजिस्ट मेरी रुएबुश कहती हैं, "ये रोगाणु हमारी प्रतिरोधी क्षमता, ऑटिज़्म, एलर्जी, मूड और हमारे नर्वस सिस्टम के विकास से जुड़े होते हैं."
यह एक्सपोज़र थेरेपी हमारे जन्म के समय से शुरू होती है. यही वजह है कि प्राकृतिक रूप से मां के पेट से निकले बच्चों में सीज़ेरियन ऑपरेशन के ज़रिए जन्म लेने वाले बच्चों की तुलना में एलर्जी की समस्या कम होती है.
ग्राहम रूक के मुताबिक़ इनमें कुछ अच्छे रोगाणुओं के चलते उम्र बढ़ने के साथ हमें काफ़ी फ़़ायदा होता है. लेकिन ज़्यादा सफ़ाई से रहने पर इन दोस्त रोगाणुओं से संपर्क ख़त्म हो सकता है.
मुश्किल यह है कि अच्छे बैक्टीरिया को बचाने के साथ हम ख़राब रोगाणुओं की चपेट में आने से कैसे बच सकते हैं?
मेरी रुएबुश कहती हैं कि बहुत सफ़ाई से रहने वाले लोगों में एलर्जी की आशंका ज़्यादा होती है. अगर रुएबुश की सलाह मानें तो हर दिन स्नान करने से भी ऐसे अच्छे रोगाणु शरीर से बाहर निकल जाते हैं.
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वे कहती हैं कि शरीर के जननांगों की सफ़ाई करनी चाहिए और जहां पसीना बहुत आता हो, वहां सफ़ाई करके रोज़ स्नान न करने पर कोई नुक़सान नहीं होता, हालांकि उनके मुताबिक़ धुले हुए अंतर्वस्त्रों का ही इस्तेमाल करना चाहिए.
इंटरनेशनल फोरम ऑन होम हायजीन और लंदन स्कूल ऑफ़ हायजीन एवं ट्रॉपिकल मेडिसिन की सैली ब्लूमफ़ील्ड कहती हैं, "घर की सफाई भी ज़रूरत के मुताबिक़ ही करनी चाहिए."
किचन में इस्तेमाल सब्ज़ियों और मांस-मछलियों को काटने वाले चॉपिंग बोर्ड की सफाई तो तुरंत करनी चाहिए, नहीं तो परिवार में संक्रमण का ख़तरा बढ़ सकता है.
अस्पतालों में हुए अध्ययन बताते हैं कि बेडशीट और तौलिए से तेज़ी से संक्रमण फैलता है. ख़ासतौर पर गीले तौलिए का इस्तेमाल संक्रमण फैला सकता है.
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ब्लूमफ़ील्ड के मुताबिक़ घरों में बेडशीट और तौलिए सप्ताह में बदले जा सकते हैं लेकिन हाथ पोंछने वाले तौलिए एक दूसरे के साथ शेयर करने से बचना चाहिए.
लेकिन किचन और बाथरूम में इस्तेमाल होने वाले तौलिए हर इस्तेमाल के बाद धोने चाहिए. इसके अलावा टॉयलेट सीट ढकी रहे तो बेहतर, नहीं तो उससे बैक्टीरिया तेज़ी से फैलते हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ हेलसिंकी की बायोलॉजिस्ट इक्का हानस्की के मुताबिक़ बच्चों को तो घरों से बाहर मैदान में खेलने भेजना चाहिए. हो सके तो जंगलों और पेड़-पौधों के पास रहना चाहिए. उससे भी काफ़ी फ़ायदा होता है. पालतू कुत्ते के साथ रहने से भी आपकी प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है.
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पर्यावरण के ज़्यादा क़रीब रहने पर बच्चों में एलर्जी और अस्थमा होने की आशंका कम हो जाती है. कुछ बैक्टीरिया तो हमें अवसाद और तनाव से भी बचाते हैं.
दरअसल स्वस्थ रहने का सबसे बेहतर तरीक़ा जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के साथ रहना है.
यही वजह है कि बीते 20 सालों में जबसे सफ़ाई के साथ रहने का चलन बढ़ा है, समाज में अस्थमा और एलर्जी के मामले भी बढ़े हैं.
इतना ही नहीं, एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल भी हमारे शरीर में मौजूद फ़़ायदेमंद रोगाणुओं की संख्या कम करता है.