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शास्त्रीय संगीत में समय का महत्व
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समयानुसार गायन प्रस्तुत करने की पद्धति है, तथा उत्तर भारतीय संगीत-पद्धति में रागों के गायन-वादन के विषय में समय का सिध्दांत प्राचीन काल से ही चला आ रहा है, जिसे हमारे प्राचीन पंडितों ने दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम भाग दिन के बारह बजे से रात्रि के बारह बजे तक और दूसरा रात्रि के बारह बजे से दिन के बारह बजे तक माना गया है। इसमें प्रथम भाग को पूर्व भाग और दुसरे को उत्तर भाग कहा जाता है। इन भागों में जिन रागों का प्रयोग होता है, उन्हें सांगीतिक भाषा में “पूर्वांगवादी राग” और “उत्तरांगवादी राग” भी कहते है। जिन रागों का वादी स्वर जब सप्तक के पूर्वांग अर्थात् ‘सा, रे, ग, म’, इन स्वरों में से होता है, तो वे ‘पूर्वांगवादी राग’ कहे जाते है, तथा जिन रागों का वादी स्वर सप्तक के उत्तरांग अर्थात् ‘प, ध, नि, सां’, इन स्वरों में से होता है, वे ‘उत्तरांगवादी राग’ कहे जाते है। स्वर और समय के अनुसार उत्तर भारतीय रागों के तीन वर्ग मानकर कोमल-तीव्र (विकृत) स्वरों के अनुसार भी उनका विभाजन किया गया है— १. कोमल ‘रे’ और कोमल ‘ध’ वाले राग, २. शुद्ध ‘रे’ और शुद्ध ‘ध’ वाले राग तथा ३. कोमल ‘ग’ और कोमल ‘नि’ वाले राग। इस आधार पर सम्पूर्ण राग-रागिनियों की रचना की गयी है।
जैसे— ब्रह्म मुहूर्त पर ईश्वर आराधना से दिन प्रारंभ होता है, इसलिए राग भैरव में गाते है “जागो मोहन प्यारे”। पूजा-अर्चना समाप्त हो जाने के बाद दिन शुरू होता है। कामकाज से जीवन आरम्भ होने लगता है, तब तोड़ी राग में गाते है “लंगर कांकरिया जिन मारों”। सूरज माथे पर चढ़ने लगा है, अलसाई हुई दोपहर की देहलीज पर शारीर का थकना स्वाभाविक है। तब राग सारंग में गाया जाता है- “अब मोरी बात मानले पियरवा”। पैरों के पास रुकी हुई परछाई अब शारीर से दूर होने लगती है, रुके थके हाथ फिर से कामकाज में मग्न हो जाते है।
संध्या का आभास होने लगता है, तब राग मुलतानी में गाया जाता है “आँगन में नन्द लाल, ठुमक-ठुमक चलत चाल”। थका हारा सूरज पश्चिम की ओर झूकने लगता है तब मन की उदासी में होठों पर राग मारवा के शब्द गुनगुनाने लगते है “पिया मोरे अनंत देस गये”। संध्या की बेला में श्याम रंग में लीन होने के लिए मन अधीर हो उठता है ऐसे समय पिया की याद आना स्वाभाविक है तब राग पुरियाधानाश्री में “तुमरे मिलन की आस करू मैं” गाया जाता है।
राग-समय-चक्र
रात का रंग चढ़ने लगता है, मन की चंचलता, मिलन की आकांक्षाओं में झूलता मन पिया के लिए राग बागेश्री में गाता है “अपनी गरज पकड़ लीनी बैंया मोरी”। गहराती श्यामल रात अकेलेपन से छुटकारा पाने के लिए विरह व्याकुल मन राग मालकौंस में गाता है “याद आवत मोहे पिया की बतियाँ, कैसे गुजारु सखी उन बिन रतियाँ”।
मध्यरात्रि का समय हो गया है, भौतिक सुख-दुःख की अनुभूतियाँ लेने के बाद भी मन की रिक्तता पूर्ण नहीं होती। तब इस सांसारिक बन्धनों के पार उस ईश्वर के दर्शन की अभिलाषा मन में जाग्रत होती है और तब दरबारी कान्हड़ा में गाया जाता है “प्रथम ज्योति ज्वाला, शरण तेरी ये माँ”। रात्रि का अंतिम प्रहर ईश्वर तक पहुँचने के लिए अधिर मन राग अड़ाना में गाता है “अब कैसे घर जाऊ, श्याम मोहे रोकत-रोकत”।
इसी चक्र के अनुसार रागों का चलन होता है। वैसे अनेक गायक-वादक अपनी इच्छानुसार इन रागों के क्रम में परिवर्तन करके गाते-बजाते है तथा अन्य रागों का समावेश भी इच्छानुसार कर लेते है। किन्तु गायक या वादक को समय का ध्यान रखकर ही गायन-वादन करना चाहिए अन्यथा समय का ध्यान रखकर गायन-वादन नहीं करने से श्रोताओं पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं होता है, और न राग से रसोत्पत्ति संभव है।
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