हिंदी सिनेमा की सशक्त महिलाएं

हिंदी सिनेमा की सशक्त महिलाएं

निभा सिन्हा 

आधी आबादी के सशक्तिकरण के बगैर समाज और देश के विकास की कोरी कल्पना ही की जा सकती है। महिलाओं  का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है और यह आज भी समय की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत बनी हुई है। जनमाध्यमों  के व्यापक पहुंच एवं प्रभाव को देखते हुए यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन माध्यमों की भूमिका के बगैर महिला सशक्तिकरण जैसे विषय को आगे ले जाना मुश्किल  ही नहीं नामुमकिन है। सिनेमा ऐसा ही एक जनमाध्यम है जिसका महिलाओं के ऊपर बहुत व्यापक प्रभाव होता है. ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है की आखिर सिनेमा में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है. महिलाओं को किस रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. क्या महिलाएं अब भी लोगो, विशेषकर एक खास पुरुष वर्ग के मनोरंजन का साधन हैं या  उनकी अपनी स्थिति में भी सुधार की शुरुआत हुई है ?

यदि हम मुख्यधारा के  हिंदी सिनेमा (जो ‘बाॅलीवुड’ के नाम से भी प्रचलित है ) की बात करें तो शुरुआती दौर में  महिलाओं  को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में  प्रस्तुत किया गया लेकिन  कुछ फिल्म निर्माताओं ने  ऐसी फिल्मो  को भी बनाने का साहस किया जो पारंपरिक भूमिका से बिलकुल हटकर महिलाओ  के व्यक्तित्व के सशक्त पक्ष को दिखाता है। उनकी इस जिद को दिखाता है कि पितृसत्तात्मक समाज में भी कैसे वे अपने आप को बाहर निकालकर अपना वजूद बनाने और आत्मनिर्भर बनकर सम्मानित जिंदगी जीने में सक्षम हैं।

 

आरंभिक दौर की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में  ऐसी महिलाओं को दिखाया गया जो धर्म एवं पौराणिक कथाओं  से प्रेरित थी । आजादी के बाद के दौर की कुछ फिल्में, ( गोरी:1968, दहेज:1950, बीवी हो तो ऐसी:1988 पति परमेश्वर,1958) जैसी फिल्मों में  उन्हें सीता के रूप में  पति को परमेश्वर  मानने वाली महिला के रूप में  दिखाया गया। ये अपने पति और परिवार के लिए सब कुछ त्याग देती हैं। पति के अहम् को संतुष्ट  करने के लिए सब कुछ छोड. देने वाली महिला को देखा गया (अभिमान,1973)। इन फिल्मों में एक दौर वह भी आया जब हीरोइन की भूमिका महत्वपूर्ण है और वे काफी पढ़ी  लिखी हैं लेकिन उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. कभी खुशी, कभी गम(2000 ) कुछ कुछ होता है(1998),हम  आपके हैं कौन (1994)हम साथ साथ हैं(1999) में महिलाओं  को इसी रूप में  दिखाया गया। इन फिल्मों में  महिलाओं की भूमिका परिवार केंद्रित  रही। वे काफी पारंपरिक एवं घरेलू रूप में  देखी गई।

 

लेकिन आजादी के पहले से ही कुछ ऐसी फिल्में  भी बनती रहीं जिनमें  महिलाओं से जुडी  समस्याओं  को उठाने के प्रयास हुए हैं। 1930 के दशक में ‘दुनिया ना माने‘ में  कम उम्र की लड़की  की उससे काफी बड़े  लड.के से शादी के मुद्दे को उठाया गया तो छूआछूत की समस्या देविका रानी की ‘अछूत कन्या‘( 1936) के माध्यम से लोगो के सामने लाई गई। 1950 के दौर की महबूब खान की ‘मदर इंडिया‘ की राधा के सशक्त किरदार को देखा जा सकता है।

 

समकालीन दौर में हिंदी सिनेमा में निर्माताओं  के प्रयास और अभिनेत्रियो के सशक्त भूमिका करने की पहल से जिस्म (2003द), अस्तित्व (2000 ), सलाम नमस्ते (2005), चक दे इंडिया (2007), डर्टी पिक्चर (2011) कहानी (2013), नो वन किल्ड जेसिका (2011), चमेली (2003), लज्जा (2001), चीनी कम (2007) जैसी फिल्में बनीं , जिनमें लिव इन रिलेशन, तलाक, सरोगेसी जैसे मुद्दों को बेबाकी से उठाते हुए महिलाओं की एक अलग ही तसवीर प्रस्तुत की गई।

 

‘चक दे इंडिया’ में जहां एक तरफ महिला के परिवार और कैरियर में  से एक को चुनने के अंतर्द्वंद को दिखाया गया वहीं दूसरी तरफ यह भी दिखाया गया कि मध्यमवर्गीय परिवार की एक बहुत ही सामान्य महिला शादी के बजाए हाॅकी जैसे खेल में अपने कैरियर को प्राथमिकता देती है। हिंदी सिनेमा की यह समाज के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। अब फिल्म निर्माता और अभिनेता इस बात को मानने लगे हैं कि महिला सशक्तिकरण में फिल्मों  का महत्वपूर्ण योगदान है और इस दिशा में कुछ हद तक काम भी कर रहे हैं।

 

21वी सदी की महिलाएं अब घरों से निकलकर बाहर आई हैं और आर्थिक रूप से घर में  भागीदारी कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की ठान ली है। हाल की फिल्म ‘इंगलिश  विंगलिश ‘ भी इसका सटीक उदाहरण है जहां आत्मसम्मान से लबरेज एक बहुत ही सामान्य महिला घर में  आर्थिक सहयोग भी करती है। फिल्म में लड्डू का व्यापार करने वाली शशि  गोडबोले(श्रीदेवी)को अमेरिका में उसके इंग्लिश  टीचर व्यवसायी के रूप में  सम्मान देते है। लेकिन अपने यहां अंग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण वह उपहास का पात्र बनती है। शशि का पति उसे अपना काम छोड.ने के लिए कहता है तो वह सवाल पूछती है कि उसे ऐसा क्यों करना चाहिए। फिल्म निर्देशक  गौरी शिंदे ने इस फिल्म में  एक ऐसी शहरी  महिला के व्यक्तित्व को उजागर किया है जो पितृसत्तात्मक समाज में  लंबी लड़ाई  लड.कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की जिद करती है और उसमें  सफल होती है।

 

‘अस्तित्व‘ की अदिति लंबे समय तक पति द्वारा उपेक्षित रहने के बाद बहुत ही साहस के साथ इस सच को पति के सामने स्वीकार करती है उसका बेटा उसके म्यूजिक टीचर का है। पति द्वारा उसके चरित्र पर सवाल उठाने पर वह किसी तरह के क्षमादान की उम्मीद करने के बजाए अपने वजूद की खोज में  घर से बाहर निकल जाना बेहतर समझती है। यह ‘अस्तित्व ‘ के सिर्फ एक अदिति की कहानी नहीं है जो हर तरह से सक्षम होने के बावजूद पति के द्वारा घर में  उपेक्षित है बल्कि यह हमारे समाज के ढेरों  औरतों  की कहानी है। लेकिन अदिति जैसा सच्चाई को स्वीकारने का साहस या अपने वजूद की तलाश  गिनी चुनी औरतें कर पा रही है। सिनेमा पूरे समाज को इस तरह का संदेश  देकर बदलाव के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन रहा  है।

 

समय के साथ सिनेमा में महिलाओं की भूमिका में बदलाव के प्रयास हुए हैं. समय के साथ समाज में आए बदलावों  के समानांतर हिंदी फिल्मों  ने चलने की कोशिश  की है और न सिर्फ साथ चलने की बल्कि कई बार नई विचारधारा को प्रस्तुत कर समाज को आंदोलित करने और उसे नई दिशा देने जैसा साहसी कदम उठाने के प्रयास भी किये हैं। नब्बे के दशक  में महिलाएं पढ़ी  लिखी हैं,आत्मनिर्भर बन सकती हैं लेकिन अपने परिवार को प्राथमिकता देती हैं।’हम आपके हैं कौन”, कुछ कुछ  होता है’ की  महिला किरदार माधुरी दीक्षित और काजोल की ऐसी ही भूमिका है। लेकिन समकालीन फिल्मों  में  महिलाओं  के काफी प्रगतिशील और आधुनिक रूप को दिखाया गया है। हांलाकि समाज की वास्तविकता को देखा जाये तो आज भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है।

 

18 से 59 वर्श के आयु वर्ग में आज भी सिर्फ 13 प्रतिशत  महिलाएं कामकाजी है और आज भी दस में  से नौ महिलाएं असंगठित क्षेत्रों  में  काम कर रही हैं। कार्यस्थल पर भी उन्हें आज भी  काफी कठिनाईयों  का सामना करना पड.ता है। आज भी लगभग 85 प्रतिषत लड़कियों  को पैदा होने पर दूसरे घर की माना जाता है और उसे पिता, पति, ससुराल और बेटे बेटियों  की सेवा करते हुए पूरी जिंदगी गुजारनी पडती है। स्त्री पुरुष  के बीच भेदभाव की 136 देशों  की वैश्विक  सूची में  भारत 101वें स्थान पर है। स्वास्थ्य और जन्म के बाद उनके जीवित रहने के मामले में  भारत 135वें यानि नीचे से दूसरे स्थान पर है। शैक्षणिक उपलब्धियों के लिहाज से देश  120वें पायदान पर है।

 

संसद  में साढे. ग्यारह प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। माध्यमिक या उच्च षिक्षा तक सिर्फ साढे. छब्बीस फीसदी लड़कियों  की पहुंच है। दुनिया भर में कुपोषण के चलते मरने वालों की तादाद सबसे ज्यादा भारत में  है जिसमें ज्यादातर बच्चियां है।औरतों को संसार की कुल आय का दस प्रतिशत मिलता है लेकिन एक से भी कम प्रतिशत की स्वामिनी हैं। सारे काम के कुल घंटों का लगभग दो तिहाई भाग औरतों का मेहनत होता है । हर आयु में उपेक्षा के कारण उनकी दशा बदतर है ।

 

लेकिन इन सब तथ्यों के  बावजूद सच्चाई यह है कि महिलाएं घरों से बाहर आ रही हैं। मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी भी महिलाओं के सशक्तिकरण के महत्व को रेखांकित करते हुए कहती हैं,‘ आज देश में 49 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है और हम एक सभ्य देश तभी बन पाएंगे जब ये 49 प्रतिशत आबादी सशक्त  हो जाएगी।‘ सिनेमा महिलाओं के कामकाजी एवं सशक्त रूप को दिखाकर लोगों के विचार में बदलाव लाने और इस दिशा में उन्हें प्रेरित  करने में  महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। जोया अख्तर की फिल्म ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा‘ में  लैला और नताशा  कामकाजी महिलाएं है। अमेरिकी भारतीय लैला लंदन में फैशन  डिजाइनिंग की पढाई कर रही है और छुटिटयों में गोताखोरी की ट्रेनिंग देती  है। नताशा इंटीरियर डिजाइनर है जो लंदन और भारत आना जाना करती है।  उनका काफी सशक्त रूप फिल्मांकित किया गया है। सिनेमा के  ये चरित्र समाज में लड़कियों के प्रति  आ रही सोच में  बदलावों को भी कही न कहीं प्रतिबिंबित करते  हैं।

 

सिद्धार्थ आनंद की फिल्म ‘बचना ऐ हसीनों ‘ में गायत्री (दीपिका पादुकोण) सिडनी में बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई दिन में करती है, शाम में शॉपिंग  माॅल में काम करती है और रात में टैक्सी चलाने का काम करती है। जब फिल्म का हीरो राज उससे पूछता है कि उसे रात में टैक्सी चलाने में डर नही लगता तो गाड़ी की डिकी में  अपनी सुरक्षा के लिए रखे हथियारों को दिखाती है। यहां भी एक निर्भीक, स्वतंत्र एवं आत्मसम्मान वाली महिला दिखती है।

 

बाॅलीवुड ने पिछले दिनों में महिला किरदार को ही केंद्र में रखकर ‘क्वीन‘ ‘एन-10‘ जैसे सिनेमा को बनाने का साहस दिखाया जिनमें न सिर्फ लडकियों से जुडी समस्याओं पर फिल्म को केंद्रित  किया गया बल्कि महिला किरदार कंगना रानौत और अनुश्का शर्मा को मुख्य भूमिका दी गई। ये दोनों किरदार महिलाओं के काफी सशक्त पक्ष को लेकर सामने आया। ‘जय गंगाजल” में भी प्रियंका चोपड़ा सिनेमा के केंद्र में हैं और काफी सशक्त पुलिस अफसर की भूमिका निभायी हैं.  इससे एक तथ्य और सामने आता है कि है कि बाॅलीवुड में हीरोइनों की अपनी स्थिति में भी काफी हद तक इजाफा हुआ है।लेकिन अब भी ज्यादातर सिनेमा अभिनेता केंद्रित ही होता है. शायद सिनेमा निर्माता को अब भी कहीं न कहीं इस बात का डर होता है कि यदि हीरोइन फिल्म के केंद्र  में रहीं तो कहीं सिनेमा अपेक्षित कमाई नहीं कर सकेगी । दूसरी तरफ अब भी आमदनी के चक्कर में सिनेमा निर्माता अभिनेत्रियों को धड़ल्ले से “आइटम गर्ल’ के रूप में दिखाने से नहीं चूकते हैं.

 

इन सबके बावजूद, ज्यादातर हिंदी फिल्मों  में महिलाएं सशक्त  रूप में दिखाई जा रही हैं जो आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र हैं। वे शादी जैसे फैसले स्वयं ले रही हैं, शादी के बाद भी जिंदगी अपने शर्तों पर जीना चाह रही हैं। हांलाकि जैसा आंकड़ें बताते है कि ऐसा ही बदलाव हमारे समाज में नहीं आये हैं । हमारे समाज की वास्तविकता कुछ और ही है लेकिन सिनेमा की महिलाएं भी कोरी कल्पना नहीं हैं बल्कि वे भी हमारे समाज की ही महिला है. दुखद यह है कि ऐसी महिलाओं  की संख्या गिनी चुनी है, इनका प्रतिशत बहुत कम है। लेकिन सिनेमा जो कि जनसंचार का सश क्त माध्यम है,  आत्मनिर्भर एवं सशक्त  महिलाओं  की संख्या निश्चित  रूप से बढाएगा। पहले से भी सिनेमा समाज के लिए प्रेरणा का स्त्रोत कहीं न कहीं जरूर रहा है। लेकिन यदि इस बात में  सच्चाई है कि सिनेमा की महिलाएं सश क्त और आत्मनिर्भर हुई हैै तो दूसरी तरफ यह भी उतना ही सच है कि ऐसी सशक्त महिलाओं को आज भी असाधारण या सुपर वुमेन जैसा प्रतिबिंबित किया जाता है। महिलाओं का ऐसा व्यक्त्त्वि आज भी बहुत खास है क्यो कि इनकी संख्या बहुत ही बहुत कम है।

 

कामकाजी एवं सशक्त  महिलाओं  से संबंधित उपर दिए गए आंकडे हमारे समाज की कुछ और कहानी जरूर बयान करते हैं लेकिन ‘मदर इंडिया‘ की राधा पर आई आर्थिक जिम्मेदारियों  की बात हो या फिर रमेश सिप्पी की ‘शोले’  की तांगा चलाने वाली धन्नो हो या मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री‘ की पत्रकार चाहे ‘पा‘ की अकेली डाॅक्टर मां की बात हो, मुख्यधारा की हिंदी सिनेमा की महिलाओं  ने एक लंबी दूरी तय की है। इन उपलब्धियों को  देखकर लगता है कि कुछ फिल्म निर्माताओं  ने चाहे वे पुरुष  हो या महिला, महिलाओं  के सशक्त किरदार के फिल्मांकन में  कोई भेदभाव नहीं किया है।

दूसरी तरफ अभिनेत्रियां भी इन फिल्मों  के सशक्त  किरदार को बखूबी निभाकर महिलाओं  के सशक्त  पक्ष को सामने लाई हैं और समाज के लिए कहीं न कही प्रेरणा का काम कर रही है। लेकिन सिर्फ सिनेमा से आए इन थोड़े बहुत  बदलावों  से हमें  संतुष्ट  नहीं होना होगा। अभी महिलाओं  के  सशक्तिकरण  की दिशा  में  बहुत लंबा सफर तय करना है और इसके लिए ये फ़िल्में निश्चित रूप से   रोल मॉडल का काम करती  रहेंगी।

 

निभा सिन्हा (स्वतंत्र पत्रकार एवं गेस्ट लेक्चरर, पत्रकारिता एवं जनसंचार)

निभा सिन्हा |

आधी आबादी के सशक्तिकरण के बगैर समाज और देश के विकास की कोरी कल्पना ही की जा सकती है। महिलाओं  का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है और यह आज भी समय की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत बनी हुई है। जनमाध्यमों  के व्यापक पहुंच एवं प्रभाव को देखते हुए यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन माध्यमों की भूमिका के बगैर महिला सशक्तिकरण जैसे विषय को आगे ले जाना मुश्किल  ही नहीं नामुमकिन है। सिनेमा ऐसा ही एक जनमाध्यम है जिसका महिलाओं के ऊपर बहुत व्यापक प्रभाव होता है. ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है की आखिर सिनेमा में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है. महिलाओं को किस रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. क्या महिलाएं अब भी लोगो, विशेषकर एक खास पुरुष वर्ग के मनोरंजन का साधन हैं या  उनकी अपनी स्थिति में भी सुधार की शुरुआत हुई है ?

यदि हम मुख्यधारा के  हिंदी सिनेमा (जो ‘बाॅलीवुड’ के नाम से भी प्रचलित है ) की बात करें तो शुरुआती दौर में  महिलाओं  को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में  प्रस्तुत किया गया लेकिन  कुछ फिल्म निर्माताओं ने  ऐसी फिल्मो  को भी बनाने का साहस किया जो पारंपरिक भूमिका से बिलकुल हटकर महिलाओ  के व्यक्तित्व के सशक्त पक्ष को दिखाता है। उनकी इस जिद को दिखाता है कि पितृसत्तात्मक समाज में भी कैसे वे अपने आप को बाहर निकालकर अपना वजूद बनाने और आत्मनिर्भर बनकर सम्मानित जिंदगी जीने में सक्षम हैं।

 

आरंभिक दौर की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में  ऐसी महिलाओं को दिखाया गया जो धर्म एवं पौराणिक कथाओं  से प्रेरित थी । आजादी के बाद के दौर की कुछ फिल्में, ( गोरी:1968, दहेज:1950, बीवी हो तो ऐसी:1988 पति परमेश्वर,1958) जैसी फिल्मों में  उन्हें सीता के रूप में  पति को परमेश्वर  मानने वाली महिला के रूप में  दिखाया गया। ये अपने पति और परिवार के लिए सब कुछ त्याग देती हैं। पति के अहम् को संतुष्ट  करने के लिए सब कुछ छोड. देने वाली महिला को देखा गया (अभिमान,1973)। इन फिल्मों में एक दौर वह भी आया जब हीरोइन की भूमिका महत्वपूर्ण है और वे काफी पढ़ी  लिखी हैं लेकिन उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. कभी खुशी, कभी गम(2000 ) कुछ कुछ होता है(1998),हम  आपके हैं कौन (1994)हम साथ साथ हैं(1999) में महिलाओं  को इसी रूप में  दिखाया गया। इन फिल्मों में  महिलाओं की भूमिका परिवार केंद्रित  रही। वे काफी पारंपरिक एवं घरेलू रूप में  देखी गई।

 

लेकिन आजादी के पहले से ही कुछ ऐसी फिल्में  भी बनती रहीं जिनमें  महिलाओं से जुडी  समस्याओं  को उठाने के प्रयास हुए हैं। 1930 के दशक में ‘दुनिया ना माने‘ में  कम उम्र की लड़की  की उससे काफी बड़े  लड.के से शादी के मुद्दे को उठाया गया तो छूआछूत की समस्या देविका रानी की ‘अछूत कन्या‘( 1936) के माध्यम से लोगो के सामने लाई गई। 1950 के दौर की महबूब खान की ‘मदर इंडिया‘ की राधा के सशक्त किरदार को देखा जा सकता है।

 

समकालीन दौर में हिंदी सिनेमा में निर्माताओं  के प्रयास और अभिनेत्रियो के सशक्त भूमिका करने की पहल से जिस्म (2003द), अस्तित्व (2000 ), सलाम नमस्ते (2005), चक दे इंडिया (2007), डर्टी पिक्चर (2011) कहानी (2013), नो वन किल्ड जेसिका (2011), चमेली (2003), लज्जा (2001), चीनी कम (2007) जैसी फिल्में बनीं , जिनमें लिव इन रिलेशन, तलाक, सरोगेसी जैसे मुद्दों को बेबाकी से उठाते हुए महिलाओं की एक अलग ही तसवीर प्रस्तुत की गई।

 

‘चक दे इंडिया’ में जहां एक तरफ महिला के परिवार और कैरियर में  से एक को चुनने के अंतर्द्वंद को दिखाया गया वहीं दूसरी तरफ यह भी दिखाया गया कि मध्यमवर्गीय परिवार की एक बहुत ही सामान्य महिला शादी के बजाए हाॅकी जैसे खेल में अपने कैरियर को प्राथमिकता देती है। हिंदी सिनेमा की यह समाज के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। अब फिल्म निर्माता और अभिनेता इस बात को मानने लगे हैं कि महिला सशक्तिकरण में फिल्मों  का महत्वपूर्ण योगदान है और इस दिशा में कुछ हद तक काम भी कर रहे हैं।

 

21वी सदी की महिलाएं अब घरों से निकलकर बाहर आई हैं और आर्थिक रूप से घर में  भागीदारी कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की ठान ली है। हाल की फिल्म ‘इंगलिश  विंगलिश ‘ भी इसका सटीक उदाहरण है जहां आत्मसम्मान से लबरेज एक बहुत ही सामान्य महिला घर में  आर्थिक सहयोग भी करती है। फिल्म में लड्डू का व्यापार करने वाली शशि  गोडबोले(श्रीदेवी)को अमेरिका में उसके इंग्लिश  टीचर व्यवसायी के रूप में  सम्मान देते है। लेकिन अपने यहां अंग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण वह उपहास का पात्र बनती है। शशि का पति उसे अपना काम छोड.ने के लिए कहता है तो वह सवाल पूछती है कि उसे ऐसा क्यों करना चाहिए। फिल्म निर्देशक  गौरी शिंदे ने इस फिल्म में  एक ऐसी शहरी  महिला के व्यक्तित्व को उजागर किया है जो पितृसत्तात्मक समाज में  लंबी लड़ाई  लड.कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की जिद करती है और उसमें  सफल होती है।

 

‘अस्तित्व‘ की अदिति लंबे समय तक पति द्वारा उपेक्षित रहने के बाद बहुत ही साहस के साथ इस सच को पति के सामने स्वीकार करती है उसका बेटा उसके म्यूजिक टीचर का है। पति द्वारा उसके चरित्र पर सवाल उठाने पर वह किसी तरह के क्षमादान की उम्मीद करने के बजाए अपने वजूद की खोज में  घर से बाहर निकल जाना बेहतर समझती है। यह ‘अस्तित्व ‘ के सिर्फ एक अदिति की कहानी नहीं है जो हर तरह से सक्षम होने के बावजूद पति के द्वारा घर में  उपेक्षित है बल्कि यह हमारे समाज के ढेरों  औरतों  की कहानी है। लेकिन अदिति जैसा सच्चाई को स्वीकारने का साहस या अपने वजूद की तलाश  गिनी चुनी औरतें कर पा रही है। सिनेमा पूरे समाज को इस तरह का संदेश  देकर बदलाव के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन रहा  है।

 

समय के साथ सिनेमा में महिलाओं की भूमिका में बदलाव के प्रयास हुए हैं. समय के साथ समाज में आए बदलावों  के समानांतर हिंदी फिल्मों  ने चलने की कोशिश  की है और न सिर्फ साथ चलने की बल्कि कई बार नई विचारधारा को प्रस्तुत कर समाज को आंदोलित करने और उसे नई दिशा देने जैसा साहसी कदम उठाने के प्रयास भी किये हैं। नब्बे के दशक  में महिलाएं पढ़ी  लिखी हैं,आत्मनिर्भर बन सकती हैं लेकिन अपने परिवार को प्राथमिकता देती हैं।’हम आपके हैं कौन”, कुछ कुछ  होता है’ की  महिला किरदार माधुरी दीक्षित और काजोल की ऐसी ही भूमिका है। लेकिन समकालीन फिल्मों  में  महिलाओं  के काफी प्रगतिशील और आधुनिक रूप को दिखाया गया है। हांलाकि समाज की वास्तविकता को देखा जाये तो आज भी ज्यादा कुछ बदला नहीं है।

 

18 से 59 वर्श के आयु वर्ग में आज भी सिर्फ 13 प्रतिशत  महिलाएं कामकाजी है और आज भी दस में  से नौ महिलाएं असंगठित क्षेत्रों  में  काम कर रही हैं। कार्यस्थल पर भी उन्हें आज भी  काफी कठिनाईयों  का सामना करना पड.ता है। आज भी लगभग 85 प्रतिषत लड़कियों  को पैदा होने पर दूसरे घर की माना जाता है और उसे पिता, पति, ससुराल और बेटे बेटियों  की सेवा करते हुए पूरी जिंदगी गुजारनी पडती है। स्त्री पुरुष  के बीच भेदभाव की 136 देशों  की वैश्विक  सूची में  भारत 101वें स्थान पर है। स्वास्थ्य और जन्म के बाद उनके जीवित रहने के मामले में  भारत 135वें यानि नीचे से दूसरे स्थान पर है। शैक्षणिक उपलब्धियों के लिहाज से देश  120वें पायदान पर है।

 

संसद  में साढे. ग्यारह प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। माध्यमिक या उच्च षिक्षा तक सिर्फ साढे. छब्बीस फीसदी लड़कियों  की पहुंच है। दुनिया भर में कुपोषण के चलते मरने वालों की तादाद सबसे ज्यादा भारत में  है जिसमें ज्यादातर बच्चियां है।औरतों को संसार की कुल आय का दस प्रतिशत मिलता है लेकिन एक से भी कम प्रतिशत की स्वामिनी हैं। सारे काम के कुल घंटों का लगभग दो तिहाई भाग औरतों का मेहनत होता है । हर आयु में उपेक्षा के कारण उनकी दशा बदतर है ।

 

लेकिन इन सब तथ्यों के  बावजूद सच्चाई यह है कि महिलाएं घरों से बाहर आ रही हैं। मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी भी महिलाओं के सशक्तिकरण के महत्व को रेखांकित करते हुए कहती हैं,‘ आज देश में 49 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है और हम एक सभ्य देश तभी बन पाएंगे जब ये 49 प्रतिशत आबादी सशक्त  हो जाएगी।‘ सिनेमा महिलाओं के कामकाजी एवं सशक्त रूप को दिखाकर लोगों के विचार में बदलाव लाने और इस दिशा में उन्हें प्रेरित  करने में  महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। जोया अख्तर की फिल्म ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा‘ में  लैला और नताशा  कामकाजी महिलाएं है। अमेरिकी भारतीय लैला लंदन में फैशन  डिजाइनिंग की पढाई कर रही है और छुटिटयों में गोताखोरी की ट्रेनिंग देती  है। नताशा इंटीरियर डिजाइनर है जो लंदन और भारत आना जाना करती है।  उनका काफी सशक्त रूप फिल्मांकित किया गया है। सिनेमा के  ये चरित्र समाज में लड़कियों के प्रति  आ रही सोच में  बदलावों को भी कही न कहीं प्रतिबिंबित करते  हैं।

 

सिद्धार्थ आनंद की फिल्म ‘बचना ऐ हसीनों ‘ में गायत्री (दीपिका पादुकोण) सिडनी में बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई दिन में करती है, शाम में शॉपिंग  माॅल में काम करती है और रात में टैक्सी चलाने का काम करती है। जब फिल्म का हीरो राज उससे पूछता है कि उसे रात में टैक्सी चलाने में डर नही लगता तो गाड़ी की डिकी में  अपनी सुरक्षा के लिए रखे हथियारों को दिखाती है। यहां भी एक निर्भीक, स्वतंत्र एवं आत्मसम्मान वाली महिला दिखती है।

 

बाॅलीवुड ने पिछले दिनों में महिला किरदार को ही केंद्र में रखकर ‘क्वीन‘ ‘एन-10‘ जैसे सिनेमा को बनाने का साहस दिखाया जिनमें न सिर्फ लडकियों से जुडी समस्याओं पर फिल्म को केंद्रित  किया गया बल्कि महिला किरदार कंगना रानौत और अनुश्का शर्मा को मुख्य भूमिका दी गई। ये दोनों किरदार महिलाओं के काफी सशक्त पक्ष को लेकर सामने आया। ‘जय गंगाजल” में भी प्रियंका चोपड़ा सिनेमा के केंद्र में हैं और काफी सशक्त पुलिस अफसर की भूमिका निभायी हैं.  इससे एक तथ्य और सामने आता है कि है कि बाॅलीवुड में हीरोइनों की अपनी स्थिति में भी काफी हद तक इजाफा हुआ है।लेकिन अब भी ज्यादातर सिनेमा अभिनेता केंद्रित ही होता है. शायद सिनेमा निर्माता को अब भी कहीं न कहीं इस बात का डर होता है कि यदि हीरोइन फिल्म के केंद्र  में रहीं तो कहीं सिनेमा अपेक्षित कमाई नहीं कर सकेगी । दूसरी तरफ अब भी आमदनी के चक्कर में सिनेमा निर्माता अभिनेत्रियों को धड़ल्ले से “आइटम गर्ल’ के रूप में दिखाने से नहीं चूकते हैं.

 

इन सबके बावजूद, ज्यादातर हिंदी फिल्मों  में महिलाएं सशक्त  रूप में दिखाई जा रही हैं जो आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र हैं। वे शादी जैसे फैसले स्वयं ले रही हैं, शादी के बाद भी जिंदगी अपने शर्तों पर जीना चाह रही हैं। हांलाकि जैसा आंकड़ें बताते है कि ऐसा ही बदलाव हमारे समाज में नहीं आये हैं । हमारे समाज की वास्तविकता कुछ और ही है लेकिन सिनेमा की महिलाएं भी कोरी कल्पना नहीं हैं बल्कि वे भी हमारे समाज की ही महिला है. दुखद यह है कि ऐसी महिलाओं  की संख्या गिनी चुनी है, इनका प्रतिशत बहुत कम है। लेकिन सिनेमा जो कि जनसंचार का सश क्त माध्यम है,  आत्मनिर्भर एवं सशक्त  महिलाओं  की संख्या निश्चित  रूप से बढाएगा। पहले से भी सिनेमा समाज के लिए प्रेरणा का स्त्रोत कहीं न कहीं जरूर रहा है। लेकिन यदि इस बात में  सच्चाई है कि सिनेमा की महिलाएं सश क्त और आत्मनिर्भर हुई हैै तो दूसरी तरफ यह भी उतना ही सच है कि ऐसी सशक्त महिलाओं को आज भी असाधारण या सुपर वुमेन जैसा प्रतिबिंबित किया जाता है। महिलाओं का ऐसा व्यक्त्त्वि आज भी बहुत खास है क्यो कि इनकी संख्या बहुत ही बहुत कम है।

 

कामकाजी एवं सशक्त  महिलाओं  से संबंधित उपर दिए गए आंकडे हमारे समाज की कुछ और कहानी जरूर बयान करते हैं लेकिन ‘मदर इंडिया‘ की राधा पर आई आर्थिक जिम्मेदारियों  की बात हो या फिर रमेश सिप्पी की ‘शोले’  की तांगा चलाने वाली धन्नो हो या मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री‘ की पत्रकार चाहे ‘पा‘ की अकेली डाॅक्टर मां की बात हो, मुख्यधारा की हिंदी सिनेमा की महिलाओं  ने एक लंबी दूरी तय की है। इन उपलब्धियों को  देखकर लगता है कि कुछ फिल्म निर्माताओं  ने चाहे वे पुरुष  हो या महिला, महिलाओं  के सशक्त किरदार के फिल्मांकन में  कोई भेदभाव नहीं किया है।

दूसरी तरफ अभिनेत्रियां भी इन फिल्मों  के सशक्त  किरदार को बखूबी निभाकर महिलाओं  के सशक्त  पक्ष को सामने लाई हैं और समाज के लिए कहीं न कही प्रेरणा का काम कर रही है। लेकिन सिर्फ सिनेमा से आए इन थोड़े बहुत  बदलावों  से हमें  संतुष्ट  नहीं होना होगा। अभी महिलाओं  के  सशक्तिकरण  की दिशा  में  बहुत लंबा सफर तय करना है और इसके लिए ये फ़िल्में निश्चित रूप से   रोल मॉडल का काम करती  रहेंगी।

 

निभा सिन्हा (स्वतंत्र पत्रकार एवं गेस्ट लेक्चरर, पत्रकारिता एवं जनसंचार)

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