दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो

दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।

हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो। अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो;और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है–अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे,तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजा–तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।

 

Vote: 
No votes yet

New Dhyan Updates

स्मृति का अर्थ है —बोध
आप अच्छे हैं या स्वाभाविक?
जागरण की तीन सीढ़ियां हैं।
ओशो – प्रेमपूर्ण हो जाओ
क्या यंत्र समाधि प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं?
यही शरीर, बुद्ध: हां, तुम।
व्यक्तियों को वस्तु मत बनाओ
ओशो: जब कामवासना पकड़े तब क्या करें ?
स्‍त्री-पुरूष जोड़ों के लिए नाद ब्रह्म ध्‍यान
ओशो स्टाॅप मेडिटेशन
साधक के लिए पहली सीढ़ी शरीर है
नासाग्र को देखना (ध्‍यान)—ओशो
जगत ऊर्जा का विस्तार है
निष्क्रिय विधियां : श्वास को देखना
विपस्सना कैसे की जाती है?
प्यारे प्रभु! प्रश्नों के अंबार लगे हैं
दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो
शरीर की शक्ति का ध्यान में उपयोग
ध्यान : मौन का रंग
ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह
शब्दों के बिना देखना
सफलता कोई मूल्य नहीं है
ध्यान :"मैं यह नहीं हूं'
साप्ताहिक ध्यान:: त्राटक ध्यान
ओशो – ध्यान में होने वाले अनुभव !