अग्नि पर फ़ोकस करना

अग्नि पर फ़ोकस करना

जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी निश्चित नहीं है।

और दूसरी बात कि मृत्यु अंत में नहीं घटेगी, वह घट ही रही है। मृत्यु एक प्रक्रिया है। जैसे जीवन प्रक्रिया है, वैसे ही मृत्यु भी प्रक्रिया है। द्वैत हम निर्मित करते हैं; लेकिन जीवन और मृत्यु ठीक तुम्हारे दो पांवों की तरह हैं। जीवन और मृत्यु दोनों एक प्रक्रिया हैं। तुम प्रतिक्षण मर रहे हो।

मुझे यह बात इस तरह से कहने दो: जब तुम श्वास भीतर ले जाते हो तो वह जीवन है; और जब तुम श्वास बाहर निकालते हो तो वह मृत्यु है।

पंद्रह मिनट के लिए गहरी श्वास बाहर छोड़ो। कुर्सी पर या जमीन पर बैठ जाओ और गहरी श्वास छोड़ो और छोड़ते समय आंखें बंद रखो। जब श्वास बाहर जाए तब तुम भीतर चले जाओ। और फिर शरीर को श्वास भीतर लेने दो। और जब श्वास भीतर जाए, आंखें खोल लो और तुम बाहर चले जाओ। ठीक उलटा करो: जब श्वास बाहर जाए तो तुम भीतर जाओ; और जब श्वास भीतर जाए तो तुम बाहर जाओ।

जब तुम श्वास छोड़ते हो तो भीतर खाली स्थान, अवकाश निर्मित होता है; क्योंकि श्वास जीवन है। जब तुम गहरी श्वास छोड़ते हो तो तुम खाली हो जाते हो; जीवन बाहर निकल गया। एक ढंग से तुम मर गए; क्षण भर के लिए मर गए। मृत्यु के उस मौन में अपने भीतर प्रवेश करो। श्वास बाहर जा रही है; आंखें बंद करो और भीतर सरक जाओ। वहां अवकाश है; तुम आसानी से सरक सकते हो।

लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो, शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्यान को अंगूठों पर ले जाओ और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है और सब कुछ जल रहा है; जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।

अंगूठे से क्यों शुरू करो? यह आसान होगा, क्योंकि अंगूठा तुम्हारे 'मैं' से, तुम्हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो दूर के बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल गए हैं, सिर्फ राख बची है। और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग--पैर, जांघ--विलीन हो जाएंगे।

और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे हैं; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं हैं, वे राख हो गए हैं। ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्येक चीज राख हो गई है; धूल धूल में मिल गई है।

तुम शिखर पर खड़े द्रष्टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पड़ा होगा--मृत, जला हुआ, राख--और तुम द्रष्टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।

इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहो; यह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते रहे तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्हारी कल्पना सफल होगी और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा और तुम सचमुच देखोगे कि तुम्हारा शरीर राख हो गया है। तब तुम निरीक्षण कर सकते हो।

Osho: Excerpted from The Book of Secrets

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