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ओशो – ध्यान धन है ।

संसार में लोग गंवाकर जाते हैं, कमाकर नहीं।
अक्सर लेकिन हम समझते हैं कि लोग कमा रहे हैं।
बाजारों में लोग कमाने में लगे हैं।
पूछो तो जरा गौर से! क्या कमाकर ले जाओगे?
क्या कमा रहे हो? गंवाकर जाओगे।
एक संपदा थी भीतर, जिसको लुटाकर जाआगे।
आत्मा बेच दोगे, ठीकरे खरीद लोगे।
जीवन का परम अवसर जो
परमात्मा का मिलन बन सकता था,
उसमें कुछ कागज के नोट इकट्ठे कर लोगे।
और नोट यहीं पड़े रह जाएंगे।
उन्हें तुम साथ न ले जा सकोगे।
उन्हें कोई कभी साथ नहीं ले जा सका है।
संसार की कोई भी वस्तु साथ नहीं जा सकती।
धन की, असली धन की परिभाषा क्या है?
जो साथ जा सके। ध्यान ही साथ जा सकता है
इसलिए ध्यान धन है।
बुद्ध बारह वर्ष बाद घर लौटे,
उनकी पत्नी नाराज थी। उसने
अपने बेटे को उनके सामने खड़ा कर दिया।
कहा, राहुल, ये तेरे पिता हैं।
ये घर छोड़कर भाग गए थे। अब मिल गए हैं।
अब दुबारा कभी मिलना हो या न मिलना हो,
इनसे अपनी वसीयत मांग ले।
यह मजाक था, व्यंग्य था।
बुद्ध के पास अब क्या था वसीयत देने को?
भिखारी थे। हाथ में सिर्फ एक भिक्षापात्र था।
मां मजाक कर रही थी। मां व्यंग्य कर रही थी।
अपने बेटे से कह रही थी, देख ले,
ये हैं तेरे पिता। तू बार-बार पूछता था
कि मेरे पिता कौन, मेरे पिता कौन हैं?
यह जो भिखमंगा तुम्हारे सामने खड़ा है,
यह तुम्हारा पिता है।
इसने तुम्हें जन्म दिया और
उत्तरदायित्व नहीं समझा और घर से भाग गया।
अब इससे अपनी वसीयत मांग लो,
अब दुबारा मिलना हो कि न मिलना हो।
फिर यह आए, न आए।
लेकिन यशोधरा को पता नहीं था
कि बुद्धों के साथ मजाक में भी जुड़
जाओ तो मजाक महंगी पड़ जाती है।
राहुल ने हाथ फैला दिए।
मां कहती थी कि वसीयत मांग लो।
मां यह दिखाना चाहती थी कि बुद्ध को
समझ में आए कि तुम सिर्फ भिखमंगे हो गए हो,
और क्या हुआ? पाया क्या? खोया बहुत।
सम्राट् थे, भिखमंगे हो गए।
आज बेटा हाथ फैलाए खड़ा है
तुम्हारे पास देने को एक पैसा भी नहीं है।
यह क्या पाना हुआ? क्या कमाकर लौटे हो,
मां यह कह रही थी।
लेकिन बुद्ध ने राहुल के फैले हुए
हाथों में अपना भिक्षापात्र दे दिया और कहा,
तेरी दीक्षा हो गई, तू भी भिक्षु हुआ।
मेरे पास यही धन है देने को।
मैं ध्यान लेकर लौटा हूं, ध्यान तुझे दूंगा।
और यशोधरा को कहा
कि तुझे भी मेरा निमंत्रण है।
मैं परम संपदा लेकर लौटा हूं,
तू भी उसमें भागीदार बन।
मैं गंवाकर नहीं लौटा हूं,
कमाकर लौटा हूं। मेरी आंखों में फिर से देख।
यह वही आदमी नहीं है जो तुझे छोड़कर गया था।
मेरे हाथ के भिक्षापात्र को देखती है,
मेरी आत्मा को देख।
मेरी चारों तरफ झरती हुई आभा को देख।
यह संगीत जो मेरे हृदय में बज रहा है,
इसको सुन।
क्रोध में थी यशोधरा।
और क्रोध बिल्कुल स्वाभाविक था।
लेकिन बुद्ध की यह सिंहगर्जना!
उसने अपने आंसू पोंछे,
गौर से बुद्ध को देखा।
यह प्रमाद! यह सौंदर्य!
यह निश्चित ही दूसरा व्यक्ति है।
देह वही है, आत्मा बदल गई है।
यह गरिमा, यह गौरव-मंडित रूप,
यह इस पृथ्वी का नहीं है।
यह परलोक से उतरा है। यह दिव्य है।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक,
इतिहासज्ञ एच० जी० वेल्स ने लिखा है
कि इस पृथ्वी पर बुद्ध से ज्यादा
ईश्वर-विहीन और ईश्वर-जैसा व्यक्ति दूसरा नहीं है।
बुद्ध ईश्वर को मानते नहीं थे इसलिए ऐसा लिखा है।
“सो गॉडलेस एंड सो गॉडलाइक’ :
इतना ईश्वरशून्य और इतना ईश्वर-जैसा!
झुकी यशोधरा, भिक्षुणी हो गई।
ध्यान धन है। ध्यान को ही भक्त कहते हैं,
नाम-स्मरण। वह भक्ति का नाम है।
~ ओशो
नाम सुमिर मन बांवरे
प्रवचन : 04