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शुद्ध स्वर
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सा, रे, ग, म, प, ध, नि शुद्ध स्वर कहे जाते हैं। इनमें सा और प तो अचल स्वर माने गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर क़ायम रहते हैं। बाकी पाँच स्वरों के दो-दो रूप कर दिए गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर से हटते हैं, इसलिए इन्हें कोमल व तीव्र नामों से पुकारते हैं। इन्हें विकृत स्वर भी कहा जाता है।
किसी स्वर की नियमित आवाज़ को नीचे उतारने पर वह कोमल स्वर कहलाता है और कोई स्वर अपनी नियमित आवाज़ से ऊँचा जाने पर तीव्र स्वर कहलाता है। रे, ग, ध, नि, ये चारों स्वर जब अपनी जगह से नीचे हटते हैं तो 'कोमल' बन जाते हैं और जब इन्हें फिर अपने नियत स्थान पर पहुँचा दिया जाता है तो इन्हें 'तीव्र' या 'शुद्ध' कहते हैं। किन्तु 'म' यानी मध्यम स्वर जब अपने नियत स्थान से हटता है तो वह नीचे नहीं जाता, क्योंकि उसका नियत स्थान पहले ही नीचा है; अत: 'म' स्वर जब हटेगा यानी विकृत होगा, तो ऊँचा जाकर 'तीव्र' कहलाएगा। गायकों को साधारण बोलचाल में कोमल स्वरों को 'उतरे स्वर' और तीव्र स्वरों को 'चढ़े स्वर' भी कहते हैं।
इस प्रकार दो अचल तथा पाँच शुद्ध और पाँच विकृत, सब मिलाकर बारह स्वर हुए–
रे, ग, म, ध, नि (शुद्ध स्वर)- इन पर कोई चिह्न नहीं होता।
रे, ग, ध, म, नि (विकृत स्वर)- इनमें रे, ग, ध, नि कोमल हैं और 'म' तीव्र है।
विष्णु दिगम्बर स्वरलिपि पद्धति में बारह स्वर इस प्रकार लिखे जाते हैं–
सा, प – अचल व शुद्ध स्वर।
रि, ग, म, ध, नि – शुद्ध स्वर।
रि, ग्, म्, ध्, नि – विकृत स्वर। (इनमें रि, ग, ध, नि' कोमल और 'म' तीव्र है)
इनके अतिरिक्त उत्तरी संगीत पद्धति में अन्य चिह्न प्रणालियाँ भी चल रहीं हैं, किन्तु मुख्य रूप से उपर्युक्त दो चिह्न प्रणालियाँ ही प्रचलित हैं। कोमल और तीव्र के अतिरिक्त सप्तक तथा मात्रा आदि के अन्य चिह्न भी लगाए जाते हैं, जिनका विवरण इस पुस्तक में आगे चलकर 'स्वरलिपि-पद्धति' लेख में विस्तृत रूप से दिया गया है।
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