संगीत के स्वर

संगीत के स्वर
Rag content type: 

श्रीमती विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक ‘भारतीय संगीत शास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन’ में पृष्ठ १३९ पर उल्लेख है कि विशुद्धि चक्र की स्थिति कण्ठ में है। यह सोलह दल वाला होता है। यह भारती देवी(सरस्वती) का स्थान है। इसके पूर्वादि दिशाओं वाले दलों पर ध्यान का फल क्रमशः १-प्रणव, २-उद्गीथ, ३-हुंफट्, ४- वषट्, ५-स्वधा(पितरों के हेतु), ६-स्वाहा(देवताओं के हेतु), ७-नमः, ८-अमृत, ९-षड्ज, १०-ऋषभ, ११-गान्धार, १२-मध्यम, १३-पञ्चम, १४- धैवत, १५-निषाद, १६-विष – ये सोलह फल होते हैं—

कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥

तत्र प्रणव उद्गीथो हुंफड्वषडथ स्वधा॥

स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विषम्॥ - संगीतरत्नाकर १.२.१२९

श्रीमती मुसलगाँवकर ने ठीक ही इंगित किया है कि उपरोक्त श्लोक में सात स्वरों की स्थिति अमृत और विष के मध्य कही गई है। इसी तथ्य की और आगे व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि स्वरों की उत्पत्ति समुद्रमन्थन के परिणामस्वरूप हुई है। समुद्रमन्थन में सबसे पहले विष प्रकट हुआ था, फिर सात या चौदह रत्न और अन्त में अमृत। समुद्रमन्थन किस प्रकार किया जाएगा, इसका संकेत भागवत पुराण के आठवें स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष से किया जा सकता है—

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्॥

अर्थात् गज ने व्यवसित बुद्धि से मन को हृदय में धारण किया और तब उस परम मन्त्र का जप किया जो उसने पहले जन्म में सीखा था। इस श्लोक में ध्यान देने योग्य बात यह है कि परोक्ष रूप में मन को हृदय का मन्थन करने वाला कहा जा रहा है। ऐसी ही कोई स्थिति संगीत के स्वरों के संदर्भ में भी सोची जा सकती है।

संगीत शास्त्र में गायन के लिए हारमोनियम आदि तत् वाद्यों के द्वारा तीन सप्तकों का आश्रय लिया जाता है – मन्द्र सप्तक, शुद्ध सप्तक और तार सप्तक। शुद्ध सप्तक के स्वरों की आवृत्ति मन्द्र सप्तक के स्वरों की आवृत्तियों से दो गुनी होती है। इसी प्रकार, तार सप्तक के स्वरों की आवृत्ति शुद्ध सप्तक के स्वरों की आवृत्तियों की दो गुनी होती है। सारा गायन इन्हीं आवृत्तियों में सिमटा हुआ है। राणा कुम्भा-कृत संगीतराज पुस्तक में मन्द्र सप्तक की स्थिति हृदय पर, शुद्ध सप्तक की स्थिति कण्ठ पर तथा तार सप्तक की स्थिति शिर में कही गई है। हृदय के चक्र में गुण अविकसित स्थिति में रहते हैं। कण्ठ के चक्र में आने पर गुण विकसित हो जाते हैं। तार सप्तक में गुण अपने चरमोत्कर्ष पर रहते हैं। हृदय से नीचे के चक्रों के गुणों को प्रदर्शित करने के लिए तबला आदि अवनद्ध वाद्यों का आश्रय लिया जाता है।

लौकिक संगीत के ७ स्वरों की प्रकृति के बारे में सूचना सामवेद में साम की ५ अथवा ७ भक्तियों की प्रकृतियों से प्राप्त की जा सकती है। साम की ७ भक्तियां हैं – हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव व निधन। इनमें हिंकार को षड्ज स्वर के तुल्य, प्रस्ताव को ऋषभ, आदि को गान्धार, उद्गीथ को मध्यम, प्रतिहार को पञ्चम, उपद्रव को धैवत तथा निधन को निषाद के तुल्य माना जा सकता है। ७ स्वरों की प्रकृति को समझने का दूसरा स्रोत पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग हो सकता है जिसका आरम्भ ऐतरेय ब्राह्मण ४.२९ से होता है।

Vote: 
No votes yet

अडाना | अभोगी कान्ह्डा | अल्हैया बिलावल | अल्हैयाबिलावल | अहीर भैरव | अहीरभैरव | आनंदभैरव | आसावरो | ककुभ | कलावती | काफ़ी | काफी | कामोद | कालिंगड़ा जोगिया | कीरवाणी | केदार | कोमल-रिषभ आसावरी | कौशिक कान्हड़ा | कौशिक ध्वनी (भिन्न-षड्ज) | कौसी  | कान्ह्डा | खंबावती | खमाज | खम्बावती | गारा | गुणकली | गुर्जरी तोडी | गोपिका बसन्त | गोरख कल्याण | गौड मल्हार | गौड सारंग | गौड़मल्लार | गौड़सारंग | गौरी | गौरी (भैरव अंग) |चन्द्रकान्त | चन्द्रकौन्स | चारुकेशी | छाया-नट | छायानट | जयजयवन्ती | जयतकल्याण | जलधर  | केदार | जेजैवंती | जेतश्री | जैत | जैनपुरी | जोग | जोगकौंस | जोगिया | जोगेश्वरी | जौनपुरी | झिंझोटी | टंकी | तिलंग | तिलंग बहार | तिलककामोद | तोडी | त्रिवेणी | दरबारी कान्हड़ा | दरबारी कान्हडा | दीपक | दुर्गा | दुर्गा द्वितीय | देव गन्धार | देवगंधार | देवगिरि बिलावल | देवगिरी | देवर्गाधार | देवश्री | देवसाख | देश | देशकार | देस | देसी | धनाश्री | धानी | नंद | नट भैरव | नट राग | नटबिलावल | नायकी कान्ह्डा | नायकी द्वितीय | नायकीकान्हड़ा | नारायणी | पंचम | पंचम जोगेश्वरी | पटदीप | पटदीपकी | पटमंजरी | परज | परमेश्वरी | पहाड़ी | पीलू | पूरिया | पूरिया कल्याण | पूरिया धनाश्री | पूर्याधनाश्री | पूर्वी | प्रभात | बंगालभैरव | बड़हंससारंग | बसन्त | बसन्त मुखारी | बहार | बागेश्री | बागेश्वरी | बिलावल शुद्ध | बिलासखानी तोडी | बिहाग | बैरागी | बैरागी तोडी | भंखार | भटियार | भीम | भीमपलासी | भूपाल तोडी | भूपाली | भैरव | भैरवी | मधमाद सारंग | मधुकौंस | मधुवन्ती | मध्यमादि सारंग | मलुहा | मल्हार | मांड | मारवा | मारू बिहाग | मालकौंस | मालकौन्स | मालगुंजी | मालश्री | मालीगौरा | मियाँ की मल्लार | मियाँ की सारंग | मुलतानी | मेघ | मेघ मल्हार | मेघरंजनी | मोहनकौन्स | यमन | यमनी | रागेश्री | रागेश्वरी | रामकली | रामदासी मल्हार | लंका-दहन सारंग | लच्छासाख |ललिट | ललित | वराटी | वसंत | वाचस्पती | विभाग | विभास | विलासखानी तोड़ी | विहाग | वृन्दावनी सारंग | शंकरा | शहाना | शहाना कान्ह्डा | शिवभैरव | शिवरंजनी | शुक्लबिलावल | शुद्ध कल्याण | शुद्ध मल्लार | शुद्ध सारंग | शोभावरी | श्याम | श्याम कल्याण | श्री | श्रीराग | षट्राग | सरपर्दा | सरस्वती | सरस्वती केदार | साजगिरी | सामंतसारंग | सारंग (बृंदावनी सारंग) | सिंदूरा | सिंधुभैरवी | सिन्धुरा | सुघराई | सुन्दरकली | सुन्दरकौन्स | सूरदासी मल्हार | सूरमल्लार | सूहा | सैंधवी | सोरठ | सोहनी | सौराष्ट्रटंक | हंसकंकणी | हंसकिंकिणी | हंसध्वनी | हमीर | हरिकौन्स | हामीर | हिंदोल | हिन्डोल | हेमंत |हेमकल्याण | हेमश्री |