शुद्धि कर्म

शोधन कर्म :जैसे हम हमारे बाहय शारीर को साबुन जल इत्यादि से साफ करते है वैसे ही हठयोग में हमारे आंतरिक शारीर को शोधन कर्म के जरिये सफाई की जाती है | शोधन कर्म जल, हवा, कपड़ा और शारीर के चलन द्वारा किया जाता है, हर एक शोधन क्रिया में आवश्यक्ता के अनुसार हवा पानी कपड़ा या शरीर के चलन के जरिये शरीर के अन्धरुनी हिस्से को शुद्ध किया जाता है |

बस्ती वारीसार और जलनेति में जल का उपयोग किया जाता है, वस्त्र धोती और सूत्र नेति में वस्त्र का उपयोग किया जाता है, कपालभाती में हवा से और नौली क्रिया शारीर के चलन के द्वारा की जाती है |

हठयोग मे शोधनकर्म को बहोत महत्व दिया गया है, शरीर मे मलयुक्त नाडियां जबतक मलरहित एवं शुद्ध नहि हो जाती तब तक साधक साधना मे प्रगति नहि कर सकता, इतना ही नहि बलकी अगर साधक चाहे कि षटकर्म के बिना ही अंतरंग योग (धारणा ध्यान और समाधि) मे छलांग लगा ले तो यह बात जोखिमकारक सिद्ध हो सकती है क्योंकी बहिरंग योग से स्थुल शरीर को तैयार करने के बाद अंतरंग योग मे प्रवेश किया जाता है । अंतरंग योग मन के अञात पहेलुओ मे जांकने की साधना है स्थुल शरीर के साथ किया अकुशल व्यव्हार इतना जोखिमकारक नहि होता जितना मन की गहेराइओ मे जांक कर उससे मुक्त होना और भी जोखिमकारक हो सकता है इसिलिये स्थुल शरीर से तैयार होने के बाद मन करिब करिब कोमल और निर्मल हो जाता है ।

नाडियां जबतक मल से युक्त है तब तक सुषुम्णा मे प्राण का संचार नहि महेसुस हो सकता:

"मलाकलासु नाडीषु मारुतो नैव मध्यगः | 
कथं सयादुन्मनीभावः कार्य-सिद्धिः कथं भवेत -ह.प्र

कोइ कोइ जगह अनुलोम विलोम प्राणायाम को ही नाडिशोधन के लिये पर्याप्त माना जाता है इतना हि नहि बलकि उनको हि नाडिशोधन प्राणायाम कहा जाता है । हठयोग मे स्वात्माराम कहेते है मल से युक्त नाडिओं का समुह शुद्ध होता है तब हि योगी प्राण को रोकने मे समर्थ होता है :

"शुध्द्दमेती यदा सर्व नाडीअचक्र मलाकुलम्‌ । 
तदैव जायते योगी प्राण संग्रहणे क्षम: ॥ ह.प्र २

वात, पित्त और कफ़ जनित मलिनता जब नष्ट होकर शरीर कांतिमान एवं निर्मल बनता है तब योगी अंतरंग योग के लिये तैयार हो जाता है ।योगसाधना के दौरान साधक कुछ कुछ बिमारिओं का भोग बन जाता है तब साधक को चाहिए कि शोधन कर्म का सहारा ले ।

आयुर्वेद का पंचकर्म और हठयोग के शोधनकर्म :

आयुर्वेद के अनुसार पंचकर्म मे बस्ति, वमन, विरेचन, स्नेहन और स्वेदन मुख्य है ।
आयुर्वेद मे भी शोधनकर्म का विवरण दिया गया है, शोधनकर्म को आयुर्वेद मे पंचकर्म कहेते है । आयुर्वेद मे पंचकर्म के लिये औषधो का सहारा लेकर दर्दी की नाडि शुद्धिकरण किया जाता है जबकि योगीक शोधनकर्म मे औषधि का प्रयोग नहि किया जाता है । पंचकर्म का हेतु स्वास्थ कि प्राप्ति है जबकि शोधनकर्म का हेतु अध्यात्मिक उन्नति है । योगीक शोधनकर्म कठिन एवं जटिल क्रियाए है अनुभवी मार्गदर्शक या गुरु की आवश्यक्ता पडती है जबकि पंचकर्म स्वास्थ प्राप्तार्थिओ के लिये है, औषधि के जरिये कोइभी नाडिशोधन कर सकता है ।

हठयोग मे नेति, धौति, बस्ति, कपालभाती और नौलि शोधनकर्म मुख्य है :

धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा |
कपाल-भातिश्छैतानि षहट-कर्माणि परछक्ष्हते || २२ ||

जलनेति :

जलनेति मे नासिका के छिद्रो का अंधरुनि मार्ग कि पानी से सफाइ कि जाती है जीसमे एक खास तरह का बरतन उपयोग मे लिया जाता है जिसे नेतिपात्र भी कहेते है, वह चाइ कि कितली कि तरह नाल वाला आता है । जलनेति मे इसके अलावा एक ग्लास हलका सा गर्म पानी और चुटकी भर नमक आवश्यक है, गर्म पानी मे चुटकी भर नमक को घोलदो, गरमाहट और खारापन कि मात्रा हमारे शरीर के तापमान और खारापन के हिसाब से होनी चाहिए ताकि शरीर आसानी से ग्रहण कर सके ।

प्रक्रिया:
आगे बताये गए बर्तन मे पानी भरके अनुकुल स्थान पर चोकडी या बाथरुम या खुली जगह मे खडे रहेके बर्तन कि नाल नासिका के एक छिद्र मे लगाये और उसके विरुद्ध दिशा मे थोडा जुके जिससे बर्तन कि नाल से बहेता पानी सीधा दुसरि और नासिका से निकल जायेगा कोइ अनावश्यक प्रयत्न करने कि आवश्यक्ता नहि है, यहि क्रिया दुसरि औरसे भी करें ।

फायदें:
आंखो कि रोशनी तेज होति है, सरदर्द मे राहत होति है, नाक मे पाइल्स से मुक्ति मिलती है ।

सावचेती:
उपयोग मे लेनेवाला पानी स्वच्छ हो यह बहोत जरुरी है, मिनरल या फिल्टर्ड पानी ज्यादा हितावह है ।

सुत्रनेति:

सुत्रनेति मे पानी की जगह धागा या रबर कि केथेटर ट्युब इस्तमाल कि जाती है, एक से डेढ फुट लंबी सुतर किअच्छी गुंथी हुइ दोरी या केथेटर ट्युब जोकि बाज़ार मे उपलब्ध है वह लेकर उसके एक छोर को नासिका के एक छिद्रमें प्रवेश कराए धीरे धीरे केथेटर नासिका मे धकेलते हुए गले तक पहुंचादे, केथेटर का गले मे अहेसास होते हि दो उंगलिया मुंह मे डालके केथेटर के छोर को पकड के मुंह से बहार निकाले, इस प्रकार एक छोर नासिका मे और दुसरा छोर मुंहसे बाहर रहेगा, अब दोनो छोर को पकडकर केथेटर को आगे पीछे करें ताकि नासिका कि अच्छी सफाइ हो जाये ।
फायदें : जलनेति के सब फायदे उसमे भी मिलते है ।
सावचेति: जलनेति से सुत्रनेति प्रमाण मे कठिन क्रिया है सावधानी से करनी चाहिए । सुत्रनेति कर लेने के बाद केथेटर को अच्छी तरह से गरम पानी मे धोके साफ सुथरी जगह रखें ।शुरुआतमे केथेटर नासिका मे रुक जाता है तो थोडा बहार खिंचे और फिर से प्रयत्न करें ।

नाक मे पाइल्स कि तकलिफ़ वाले साधक को जलनेति उपयुक्त है ।
सुतर का धागा या केथेटर का डायामीटर नाक के छिद्र से कम हि रहेना चाहिए ।

नोंध : अगर केथेटर कि जगह सुत्र का धागा इस्त्माल किया जाये तो ज्यादा लाभकारक होता है

सूत्रं वितस्ति-सुस्निग्धं नासानाले परवेशयेत |
मुखान्निर्गमयेछ्छैष्हा नेतिः सिद्धैर्निगद्यते - ह.प्र २९

छे इंच लंबे धागे को नासिका से प्रवेश कराके मुंह मे से वापिस निकाले उसे आचार्य सुत्रनेति कहेते है

कपाल-शोधिनी छैव दिव्य-दॄष्ह्टि-परदायिनी |
जत्रूर्ध्व-जात-रोगौघं नेतिराशु निहन्ति छ - ह.प्र ३०

सिर के दोष दुर होते है , द्रष्टि तेज प्रदायक है

कपालभाति:

कोइ कोइ स्थान पर कपालभाति को प्राणायाम के स्तर पर भी लिया जाता है परंतु यह निर्विवादित है कि कपालभाति से शरीर का शोधन होता है, कपाल का अर्थ मस्तक और भाति का अर्थ उज्ज्वलित होना, प्रकाशीत होना इस अर्थ से कपालभाति मस्तक और चहेरे के प्रदेश को प्रकाशीत करती है । हठयोग प्रदिपिका मे श्री स्वात्मा राम ने कहा है । पद्मासन या सिद्धासन मे सीधा बैठके लौहार कि धोंकनी की तरह सांस को ले और छोडें ऐसे १० से १५ बार करें यह कपालभाति है । घेरंड सहिंता मे शीतक्रम और व्युतक्रम ऐसे दो प्रकार कपालभाति के बताये गये है ।

भस्त्रावल्लोह-कारस्य रेछ-पूरौ ससम्भ्रमौ |
कपालभातिर्विख्याता कफ-दोष्ह-विशोष्हणी -ह.प्र ३५

तिव्र गति से लौहार कि धोंकनी के तरह सांस को अंदर बहार लेने से कफ दोष का नाश होता है ।
कपालभाति से शरीर और चहेरे का शोधन होता है इसिलिये यह शोधनकर्म है उपरांत यह सांस की क्रिया होने कि वजह से वह प्राणायाम भी है ।

प्रक्रिया:
सिध्धासन या पद्मासन मे बैठे, कपालभाति मे पेट कि हलनचलन कि वजह से और आसन मे तबदिलि या ढील हो सकती है इसिलिये पद्मासन ज्यादा उपयुक्त है, कमर पीठ और गरदन को सीधा रखकर बैठे और पेट को ढीला छोडें, दोनो हाथ को घुंटनो पर जमा के रखें ।

एक गहेरा सांस अंदर ले और जटके के साथ सांस को बहार फेंके, यह क्रिया बार बार करें । गहेरा सांस शुरुआत मे हि लेना है उसके बाद सांस लेने कि क्रिया (पुरक) स्वत: होगी । सांस अंदर लेना पुरक है छोडना रेचक है, कपालभाति मे रेचक तिव्रता से और जटके के साथ होगा जबकी पुरक स्वत: और नि:प्रयास होगा ।

रेचक के दौरान पेट और पेडु का हिस्सा सिकुडकर अंदर जायेगा, उदरपटल उपर उठने से छाती का हिस्सा भी उपर ऊठेगा । पुरक के दौरान पेट साधारण फुलेगा ।

समय काल और आवर्तन:
शुरुआत मे साधक १० - १५ आवर्तन से शुरु करके एम मिनीट मे १२० आवर्तन तक पहोंच सकता है

सावचेति:
सांस और पेट कि तिव्र क्रिया है, रुधिराभीसरण तंत्र और ह्रदय पर असर होती है इसिलिये ह्रदय के रोगी, पेट के रोगी या खुन के दाब की फरियाद वाले साधक को कपालभाति नहि करना चाहिए अथवा मार्गदर्शक के मार्गदर्शन के अनुसार करना चाहिए ।
कपालभाति के दौरान शरीर के पेट के अलावा और हिस्से हीलने डुलने नहि चाहिए ।
कपालभाति करने का उपयुक्त समय सुबह और शाम है क्युंकि कपालभाति से गरमी पैदा होती है इसलिये दोपहर के समय कपालभाति नहि करना चाहिए

फायदा:
कपालभाति से शरीर के कफ़जन्य रोग शरदी अस्थमा खांसी इत्यादी दुर होते है ।
पेट के स्नायुतंत्र को मजबुत एवं सक्षम बनाता है ।
जठराग्नि बढाता है कब्ज़ और वायु कि तकलिफ़ दुर करता है ।
ञानतंत्र और श्वसनतंत्र के अंगो कार्यक्षम बनते है ।
कुंडलिनी शक्ति जाग्रुत करने मे सहायक है इसिलिए आध्यात्मिक उन्नति के लिये बहोत मुल्यवान है ।
सांस को धारण करने कि क्षमता बढती है ।
प्राणायाम से पहेले थोडे कपालभाति के आवर्तन प्राणायाम को सरल बनाते है ।
घेरंड सहिंता के अनुसार शितक्रम कपालभाति और व्युतक्रम कपालभाति :

व्युतक्रम कपालभाति:

सामन्यत: हम मुंह से पानी पीते है लेकिन व्युतक्रम कपालभाति मे नाक से पानी पीना होता है इस अर्थ मे उलटी क्रिया होनेके अर्थ मे व्युतक्रम कपालभाति है ।

प्रक्रिया:
एक काच के ग्लास मे हलका सा गर्म पानी ले उसमे चुटकीभर नमक मिला दे ।
बाथरूम या चोकट मे या खुली जगह मे खडे रहें ।
नमकिन एवं पानी को नासिका के मुल मे लगाए और कमर से थोडा आगे जुकें ।
आहिस्ता आहिस्ता पानी नाक से अंदर खींचे ।
नाक द्वारा खींचे हुए पानी को पेट मे उतारने की वजह युक्तिपुर्वक मुंह से बहार निकाल दें ।
इस तरह से एक ग्लास पानी खतम होने तक करें ।
क्रिया मे कुशल होने के पश्चात सादा पानी भी इस्तमाल कर सकते है ।

सावचेति:
सामान्यत: यह क्रिया सुबह करनी चाहिए ।
क्रिया शुरु करने से पहेले नाक और मुख अच्छे से साफ़ करें ।
नाक से पानी खींचने मे जल्दबाजी ना करे अन्यथा पानी उपर चढने से आंख और नाक मे जलन हो सकती है ।
शुरुआत मे जुकाम होने की संभावना है लेकीन धैर्यपुर्वक आगे बढे ।
क्रिया पुर्ण होने के बाद आंख, नाक और मुंह अच्छे से साफ़ करें, नासिका मे जमा हुआ पानी बहार नीकाल दें ।
जुकाम, सिरदर्द, बुखार के दौरान यह क्रिया ना करें ।

फायदा:
आंख के लिये बहोत लाभकारक है ।
सिरदर्द कि फरियाद मे राहत मिलती है ।
कफ़ और पित्त संबंधी तकलीफ़ें दुर होती है ।
कफ़दोष का निवारण होने से चहेरे पर कांति आती है इस अर्थ मे यह कपालभाति है ।

शीतक्रम कपालभाति:

व्युतक्रम कपालभाति से शीतक्रम कपालभाति का उलटा क्रम है, शीतक्रम कपालभाति मे मुंह से सित्कार के साथ पानी गले तक लेना है और नासिका के द्वार से बहार निकाल देना है ।

प्रक्रिया:
व्युतक्रम कपालभाति कि तरह एक ग्लास नमकीन और हलका सा गर्म पानी लें ।
खुले मे या बाथरुम या चोकट मे खडे रहें और सित्कार के आवाज के साथ पानी को मुंह से अंदर खींचे ।
मुंह मे पर्याप्त मात्रा मे पानी आजाने के बाद कमर से थोडा जुके और युक्तिपुर्वक गले मे रहे नासिका के छिद्र को खोलें, जिससे पानी नासिका के द्वार से बहार निकलने लगेगा ।
यह क्रिया एक ग्लास पानी खत्म होने तक करें ।

सावचेति
यह क्रिया व्युतक्रम कपालभाति से कठिन है , धैर्य और समजदारी से हस्तगत कर सकते है ।
शुरुआत मे आंख और नाक मे जलन हो सकती है ।

फायदे:
व्युतक्रम नेति मे मील रहे सब फायदें इसमे भी मीलते है ।
इस प्रकार के अभ्यास से कामदेव जैसा रुप प्राप्त होता है

"एवमभ्यास योगेन कामदेवो द्वितीयक:" घेरंड सहिंता

नौली क्रिया:

पेट मे दो बडे मसल्स वर्टीकल स्थिती मे रहेते है वे दोनो को दोनो दिशा मे घुमाने कि क्रिया नौलि क्रिया है ।
वे दो मसल्स को योगीक भाषा मे "नाल" कहेते है इसिलिये यह क्रिया को नौलि नाम दीया गया है ।

प्रक्रिया:
दोनो पैर थोडा फैलाकर खडे रहें, दोनो हाथ घुटने पर टिकाए, कमर से और घुटनों से थोडा आगे जुके ।
उड्डियान बंध मे कुशल होने के बाद हि यह क्रिया आसानी से हस्तगत कर सकते है इसिलिये उड्डियान मे कुशलता पाना अनिवार्य है ।
सांस को जटके से पुरी तरह से बहार निकाल दें और साथ साथ पेट को अंदर खींचके उड्डियान धारण करें ।
हठयोग प्रदिपिका मे श्री स्वात्माराम ने नौलि के बारे मे लिखा है : दोनो कंधे को आगे ज़ुकाकर तिव्र गति से पेटको दांयेसे बांये और बांये से दांये घुमाना चाहिए । यह क्रिया को सिद्धो ने नौलि क्रिया कहा है ।

अमन्दावर्त-वेगेन तुन्दं सव्यापसव्यतः |
नतांसो भरामयेदेष्हा नौलिः सिद्धैः परशस्यते -ह.प्र ३३

मध्य नौलि:
युक्तिपुर्वक पेट के मध्य के दोनो नाल को बहार लाने कि क्रिया मध्य नौलि है ।
उड्डियान कि अवस्था मे पेट को अंदर बहार करने का महावरा करें इससे धीरे धीरे मध्य नौलि बहार आने लगेगी,
मध्य नौलि को बहार लाने के लिये एक और प्रयत्न के रुप मे दोनो हाथो को घुटनो पर बल दें, और पेट को ढीला छोडें इससे मध्य नौलि बहार आएगी ।

वाम नौलि:
युक्तिपुर्वक पेट मे स्थित नाल को बांयी तरफ लेना वामनौलि है ।
दांयी तरफ़ के हाथ को घुटने पर नीचे की तरफ बल देने से मध्य का स्नायु बांयी जाएगा यह वाम नौलि है ।

दक्षीण नौलि:
युक्तिपुर्वक पेट मे स्थित नाल को दांयी तरफ लेना दक्षीण नौलि है ।
बांयी तरफ के हाथ को बाये घुटने पर बल देने से दांयी तरफ़ कि नौलि बहार आएगी यह दक्षीण नौलि है, यहि सहि अर्थ मे नौलि क्रिया है मध्य नौलि, वाम नौलि और दक्षीण नौलि तो नौलि क्रिया मे कुशल होने कि पुर्व तैयारी के भाग मे है ।

मध्य नौलि से वाम नौलि और वाम नौलि से दक्षीण नौलि क्रमश: गोल गोल चक्राकारे घुमाने का नाम नौलि क्रिया है ।

समय और आवर्तन:
शुरुआत मे तीन आवर्तन से शुरु करके साधक सात आवर्तन तक कर सकता है । सांस को अंदर धारण करके नौलि को एकबार चक्राकार घुमाना एक आवर्तन है ।

सावचेति:
नौलि अत्यंत जटिल और कठिन क्रिया है उसे मार्गदर्शक कि निश्रा मे हस्तगत करना चाहिए ।
नौलि क्रिया हस्तगत करने से पहेले उड्डियान बंध और आंतर कुंभक मे कुशलता प्राप्त करनी चाहिए ।
नौलि क्रिया खाली पेट करनी चाहिए सुबह शौच के बाद का समय उत्तम है ।
पेट कि बिमारी वाले साधक नौलि क्रिया करने से पहेले मार्गदर्शक का मार्गदर्शन लें ।
चौद के नीचे और ४० साल के उपर के साधक नौलि क्रिया ना करें या मार्गदर्शक का मार्गदर्शन लें ।
टीबी जैसि बिमारी वाले साधक नौलि ना करें ।
प्रेगनन्ट बहेनें नौलि का अभ्यास ना करें ।
जीसे खुन का उच्च रक्तचाप हो वह नौलि क्रिया अभ्यास न करें । 
एक बार नौलि क्रिया मे कुशल हो जाने के बाद पद्मासन मे भी नौलि क्रिया हो सकती है ।

फ़ायदें:
पेट के अवयव को कार्यक्षम रखने के लिये उत्तम क्रिया है ।
नौलि पेट पर की अनावश्यक मेदस्विता कम करती है ।
लिवर पेन्क्रियास ग्रंथीआ कार्यक्षम बनती है ।
ब्र्हमचर्य के पालन मे उपयोगी है ।

त्राटक

त्राटक आँखों की शोधन क्रिया है उसमे कोई सूक्ष्म पदार्थ वस्तु के प्रति अनिमेष देखते रहेना है |

निमेषोन्मेशकं त्यक्त्वा सूक्ष्म लक्ष्यं निरिक्षयेत |
पतन्ति यावद्श्रुणी त्राटकं प्रोच्यते बुधै: घेरंड सहिंता १/५२

सुक्ष्म लक्ष्य की तरफ अश्रुपात होने तक अनिमेष देखते रहें. ञानी यह क्रिया को त्राटक कहेते है ।
हठयोग प्रदिपिका मे स्वात्माराम कहेते है : अश्रुपात होने तक लक्ष्य को शांत चित्त से देखते रहेने कि क्रिया त्राटक है ।

निरीक्ष्हेन्निश्छल-दॄशा सूक्ष्ह्म-लक्ष्ह्यं समाहितः |
अश्रु-सम्पात-पर्यन्तमाछार्यैस्त्राटकं समॄतम - ह.प्र ३१

प्रक्रिया:
त्राटक मे लक्ष्य के लिये इष्टदेव कि प्रतिमा, स्फटिक पत्थर, छोटा शिवलिंग, आयने मे अपनी आंख, जलती धुपसली का टोच, ध्रुव तारा, चंद्र, सुबह का सुर्य (ज्यादा देर तक नहिं ), घी का दिया (लंबे अरसे तक नहि) इत्यादि मे से कोइ भी पसंद कर सकते है । कोइ भी एक लक्ष्य पसंद करें ।
उपरोक्त दीये गये मे से कोइ भी एक लक्ष्य पसंद करें ।
पद्मासन, सिद्धासन या कोइ भी ध्यानोपयोगी आसन मे बैठके लक्ष्य को आंख के समांतर करिब दो फुट दुर रखें ।
शुरुआत मे थोडे नाडिशोधन और भ्रामरी प्राणायाम करें ताकी आसानी से लक्ष्य के प्रति एकाग्रता आए ।
थोडी देर आंख बंध करके अपने स्वाभाविक सांस को देखते रहें ।
आंख खोलके प्रेम और करुणा के भाव से लक्ष्य कि तरफ देखना शुरु करें ।
आंख मे जलन होगी, आंसु बहेगे मगर बीना पलक ज़पकाए तबतक देखतें रहे, कुछ देर के बाद आंख बंध और बंध आंख से लक्ष्य का अनुभव करें ।
फिरसे आंखे खोले और लक्ष्य को देखते रहे, ऐसा तीन बार करें ।

सावचेती
लक्ष्य को देखते वक्त आंख, मन या चहेरे पर तनाव नहि आना चाहिए ।
अभ्यास को धीरे धीरे बढाए, जल्दबाजी न करें ।
जीन्हे आंख कि तकलीफ़ हो वे त्राटक का अभ्यास न करें ।

त्राटक मे सफल होने के कुछ नियम:
लक्ष्य के लिये निश्चित किया हुए प्रतिक मे बदलाहट ना करें ।
शुरुआत १० मिनीट से करके २ घंटे तक पहोंच सकते है ।
देखते वक्त आंख कि टिकिया नहि हिलनी चाहिए ।
लक्ष्य को देखते वक्त पलक ना झपकाए ।
त्राटक के दौरान मन को भी लक्ष्य से हि जुडा रखें ।
शांति कि वजे से रात्रि या भोर के समय त्राटक का अभ्यास ज्यादा उपयुक्त है ।
अगर बिंदु त्राटक करते है तो ट्युबलाइट का प्रकाश उपयुक्त है ।

निद्रा, प्रमाद, मन कि चंचलता, अनियमितता त्राटक मे मुख्य बाधाए है उनको जितकर त्राटक का अभ्यास जारी रखें, एक बार २ घंटे तक पहोंचने के बाद दो साल मे त्राटक सिद्ध होता है ऐसी परंपरागत मान्यता है ।

फायदें:
एकाग्रता और संकल्प शक्ति बढती है और ध्यान मे प्रवेश होता है ।
चक्षु के मल नीकल जाते है और आंखो का तेज बढता है ।
अजाग्रुत मन के संस्कार उपर आते है उनका रेचन होता है इस मायने से चित्तशुद्धि होति है ।

त्राटक के अभ्यास से कुछ और भी सिद्धिआं प्राप्त होति है, साधक को वह हेतु से दुर रहेना चाहिए ।

मोछनं नेत्र-रोगाणां तन्दाद्रीणां कपाटकम |
यत्नतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाटक-पेटकम -ह.प्र ३२

अर्थात त्राटक आंखो के रोग दुर करके आलस्य दुर करता है , इसको गहेनो कि संदुक कि तरह गुप्त रखना चाहिए ।

बस्ति क्रिया :

योग कि भाषा मे पेडु अर्थात बडे आंत एवं मलाशय का शोधन किया जाता है इसिलिये उनको बस्ति कहेते है ।
बस्ति उड्डिआन और नौलि के बाद कि क्रिया है साधक को चाहिए कि बस्ति करने से पहेले उड्डियान और नौलि क्रिया अच्छी तरह से हस्तगत करलें ।
साधक को मयुरासन भी अच्छी तरह से आना जरुरी है ।
जीसे आसानी से गुदाद्वार मे पसार कर सकें ऐसी अंदाजे ५ से ६ इंच लंबी धातु, रबर या लकडे की नली तैयार करें, नली कि चोडाइ करीब तर्जनी उंगली के अनुसार रहेगी ।
उपयोग करनेसे पहेले नली को गर्म पानी से अच्छी तरह से साफ करें ।
पानी से भरा हुआ एक चौडा मुंह वाला बरतन जिसके किनारे पर बैठने से नितंब का हिस्सा पानी को स्पर्श करें ।

प्रक्रिया:
शुद्ध पानी से बरतन को ७५ % तक भरें ।
नली को घी लगाकर १/३ जितनी गुदाद्वार मे दाखील करें ।
पानी से भरे बरतन मे उत्कटासन मे बैठे जिससे नितंब और नली पानी मे डुबा हुआ रहेगा ।
दोनो हाथ की हथेली को बांध कोनीओ को घुटनों पर टिकाए ।
मध्यनौलि कि क्रिया करें इससे पानी नली के द्वारा गुदाद्वार से उपर चढेगा ।
मध्यनौलि मे सांस को धारन करना मुश्कील हो जाए तब मध्यनौलि छोड दें, गुदाद्वार से नली निकाल दें ।
नीचे उतरकर नौलि क्रिया करे ।
पानी को गुदाद्वार से बहार नीकाल दें ।
थोडी देर बाद बस्ति मयुरासन करें जिससे बचा हुआ पानी भी निकल जाएगा ।

सावचेति:
बस्ति का प्रयोग खाली पेट करना चाहिए, सुबह का शौच के बाद का समय उत्तम है, अगर मलद्वार मल से युक्त हो तो नली मे मुख को गुदाद्वार मे प्रवेश कराना मुश्किल हो जाएगा ऐसे मे शुरुआत मे गणेश क्रिया करें, मल त्याग करें उसके बाद बस्ती आरंभ करें ।
बुखार या बिमारी की अवस्था मे बस्ति ना करें ।
बस्ति योग मे आगे बढे हुए साधको के लिये है, साधक को उड्डियान, नौलि और मयुरासन जैसी क्रियाओ मे कुशल होना बहोत जरुरी है ।

फायदें
मलाशय और बडे आंत का अच्छा शोधन होता है इससे उनकी कार्यक्षमता बढती है ।
कब्ज़ और वात कि तकलिफ़ें बस्ति से दुर होती है ।

शास्त्र मे बस्ति कर्म:

नाभि-दघ्न-जले पायौ नयस्त-नालोत्कटासनः |
आधाराकुनछनं कुर्यात्क्ष्हालनं बस्ति-कर्म तत -ह.प्र २६

गुदाद्वार मे १/२ इंच डायामीटर की दोनो और से खुली ६ इंच लंबी नली गुदाद्वार मे दाखील करें,नाभितक पानी मे उत्कटासन मे बैठे, गुदाद्वार को सिकुडने से पानी उपर चढेगा, चढे हुए पानी को बहार नीकाल दें यह बस्ति कर्म है ।

गुल्म-पलीहोदरं छापि वात-पित्त-कफोद्भवाः |
बस्ति-कर्म-परभावेण कष्हीयन्ते सकलामयाः -ह.प्र २७

बस्ति करने से पेट का दर्द, वात पित्त और कफ़ की विक्रुती दुर होती है

धान्त्वद्रियान्तः-करण-परसादं, दधाछ्छ कान्तिं दहन-परदीप्तम |
अशेष्ह-दोष्होपछयं निहन्याद, अभ्यस्यमानं जल-बस्ति-कर्म -ह.प्र २८

पानी से बस्ति करने से इन्द्रियां और मन शांत होता है । शरीर मे ताजगी एवं कांति देकर भुख जगाता है ।

वातसार

यह क्रिया से पहेले वायु भक्षण कि क्रिया अनिवार्य है, वायु भक्षण अच्छी तरह से वायु को पेट मे संचित करें ।
ग्रहित वायु को मुख से बहार निकालने कि वजाय बडे आंत और जठर मे धकेल दें ।
ग्रसित किया हुआ वायु अपने आप बडे आंत मे होकर मलद्वार से बहार निकल जाएगा ।

सावचेति
वायुभक्षण और शंख प्रक्षालन का पर्याप्त अभ्यास करने के बाद हि वातसार का अभ्यास करना चाहिए ।
यह क्रिया सुबह के समय शौच के बाद खाली पेट हि करनी चाहिए ।
पेट और आंत बिलकुल मल रहित होना बहोत जरुरि है ।

फायदें
शरीर के दुषित वायु दुर होता है ।
पित्त, एसिडिटी या अल्सर जैसि बिमारिओ के लिए उपयुक्त है ।
मुख से लेके मलद्वार तक शुद्ध हवा पहोंचती है ।

वायुभक्षण

अग्निसार (वहिनसार)

प्रक्रिया:
दोनो हाथ के पंजे घुटने पर टिकाए और कमर और घुटनो से थोडे जुक के खडे रहें ।
सांस को पुरी तरह से बहार निकाल दे और साथ साथ पेट दढता से पकडके रखें इसके दौरान सांस को रोक के रखें ।
अब यहि स्थिति मे पेट को अंदर बहार चालन करने कि कोशिष करें, यह क्रिया के दौरान सांस को यथावत रोक के रखना है ।
सांस रोकना कठिन हो जाए तब क्रिया को रोक दें और सांस यथाभुत चलने दें ।

सावचेति:
यह क्रिया ३ से ४ आवर्तन मे कर सकते है ।
क्रिया खाली पेट करनी चाहिए ।
साधक उड्डियान मे कुशलता प्राप्त करके यह क्रिया आसनी से कर सकता है ।
पेट के हिस्से को अंदर बहार करना है छाती यथावत स्थिति मे रहेगी ।

फायदें
जठराग्नि प्रदिप्त होती है ।
कब्ज़ दुर होके पाचन शक्ति बढती है ।
पेट के अंग स्वस्थ एवं तंदुरस्त बनते है ।

नाभिग्रंथि मेरुप्रुष्ठे शत्वारं च कास्येत्‌ ।
उदर्यमामयं त्यक्त्वा जाठराग्नि विवर्धयेत्‌ - घेरंड सहिंता

नाभि प्रदेश को मेरुदंड कि और सो बार खींचे, पेट के रोग से मुक्ति मिलती है और जठराग्नि प्रज्ज्वलित होती है ।

वमन धौति:

प्रक्रिया:
एक वर्तन मे ९ से १० ग्लास पानी मे थोडा नमक डालके गर्म करें, पानी कि गरमाहट और खारापन शरीर के तापमान और खारेपन के समान होना चाहिए ।
जल्दि से पानी पीना शुरु करे, तबतक पानी पीते रहें जब तक वोमीट जैसा अहेसास ना हो ।
जब ऐसा लगता है कि अब पानी नहि पीया जाता तो कुदरतन रुप से पानी को वमन होने दे ।
अगर वमन नहि होता है तो दो उंगलि मुंह मे अंदर तक डाले और तालु प्रदेश को घीसे इससे वमन के द्वारा पानी बहार आने लगेगा । वमन के दौरान शरीर को आगे जुकाए । वमन बंध होने के बाद फिर से दो उंगली मुंह मे डाल के प्रयत्न करे, इस तरह सारा पानी बहार निकाल दें ।

सावचेती :
वमन धौति मे कफ़ और पित्त बहार आता है इसिलिए वमन धौति के बाद आंख, मुंह, दांत, जिभ साफ करना जरुरि है ।
यदि किसिको दिल के दौरे कि या रक्तचाप बढने कि बिमारी हो तो वे यह क्रिया ना करे ।
अतिरिक्त पित्त और कफ़ को निकाल कर धातु वैमनस्य को दुर करता है ।

फायदें
जुकाम, अस्थमा, एसिडिटी कि तकलिफ़ मे राहत मिलति है ।
फेट कम होती है ।

दंडधौति

दंडधौति मे रबर कि एक पोली नली को मुख द्वार से पेट तक प्रवेश कराके पेट मे जमा हुए कफ और पित्त को पानी के साथ नली के द्वार से बहार निकालना होता है ।

प्रक्रिया:
अनामिका कि चौडाइ कि एक रब्बर कि २.५ फुट लंबी पोली नली तैयार करें, नली के दोनो छोर अच्छी तरह से मुलायम बनाए ताकि आसानी से अन्ननली मे प्रवेश कर सके । उपयोग करने से पहेले नली को अच्छी तरह से पानी से साफ करें ।
नली का एक छोर हाथ मे रखके दुसरे छोर को मुख से प्रवेश कराए और धीरे धीरे २ फिट तक नली को अंदर पहुंचादे जब आधा फुत पाइप बहार रहे जाए तब क्रिया बंध करे । इस क्रिया मे पहेले कुछ दिन तक प्रविण हो जाए, शुरुआत मे नली अंदर डालने मे परेशानी आएगी मगर धैर्यपुर्वक और सावधानी से अभ्यास से यह क्रिया आसानी से हस्तगत हो जाएगी, यह क्रिया मे पारंगत हो जाने के बाद दंडधौति का क्षेत्र शुरु होता है ।
५ से ६ ग्लास शुद्ध पानी मे थोडा नमक डालके गरम करे पानी कि गरमी एवं खारापन हमारे शरीर के तापमान एवं खारापन के समान होना चाहिए ।
उत्कटासन मे बैठेके जल्दी से ४ से ५ ग्लास पानी पी लें ।
खडे होकर रब्बर की नलीको मुख से पेट तक प्रवेश कराए, इतना करने के बाद ।
कमर से थोडे जुककर सांस भीतर ले और पेट को थोडा सिकुडे इससे पीया हुआ पानी नली के द्वार से बहार आना शुरु हो जाएगा ।
एक बार पानी शुरु होने के बाद ज्यादा हिले डुले नहि । सांस का चलना नोर्मल रखें, सांस को रोकने कि आवश्यक्ता नहि है ।
पानी का प्रवाह बंध हो जाता है तो नली को थोडी और अंदर डाले फिरसे सांस लेके पेट को थोडा सिकुडे इस तरह सारा पानी निकाल देने का प्रयत्न करें । अंत मे धीरे से नली बहार निकालकर साबुन से धोके स्वच्छ जगह पर रखे ।

सावचेति:
यह क्रिया खाली पेट करनी जरुरी है ।
नली को पेट मे प्रवेश कराने कि कला हस्तगत न हो तब तक पानी पीने का प्रारंभ ना करें ।
कोइबार कफ़प्रकोप कि वजे से पानी आसनी से बाहर नहि आता, नली को थोडी अंदर बहार करने से पानी बहार आएगा ।

फायदे:
इससे वात, पित्त और कफ़ कि विक्रुतिआ दुर होति है ।
जुकाम, एसिडिटी जैसी तकलिफ़ो से मुक्ति मिलती है ।

वस्त्र धौति :

वस्त्र धौति मे ३ इंच चौडा और २२ फीट लंबा वस्त्र के पट्टे को मुंखद्वार से होजरी तक दाखिल करना होता है इसिलिए इसे वस्त्र धौति कहेते है । वस्त्र के टुकडे को योगीक भाषा मे धौति कहेते है

वस्त्र धौति के लिए ३ इंच चौडा और २२ फीट लंबाइ का कोमल ऐसा कोटन का वस्त्र तैयार करे ।
वस्त्र के पट्टा मुलायम वस्त्र से बना हो आवश्यक है ।
पट्टे को गोल गोल मोड के एक चौडे बर्तन मे रखें ।
उपयोग से पहेले धौति वस्त्र को अच्छी तरह से गर्म पानी से धोके साफ़ करें ।
धौति वस्त्र के एक छोर को गोल गोल मोड कर नुकिला कर दें ताकि आसानी से गले मे प्रवेश किया जा सके, इस छोर को मुंहमे दुर गले तक रखे और भोजन के कौर को निगलते है वैसे धौति वस्त्र के छोर को निगलने का प्रयास करें ।
प्रथम बार १ फुट धौति वस्त्र निगाला जाए तो पर्याप्त है, ऐसा करते करते एक ४ से ५ सप्ताह मे करिब करिब २ फिट छोड के सारी धौति निगलने मे सफल रहेगे ।
धौति निगलते समय वमन जैसा लगेगा ऐसे वक्त थोडी देर मुंह बंध करके रुक जाए, वमन कि संवेदना खत्म हो जाए तो फीर प्रयास करे, ऐसे धैर्य से काम लेने से अवश्य सफ़लता मीलेगी ।
जब दो फिट को छोड सारी धौति निगल लि जाए तो यह अवस्था मे थोडा नौलि का अभ्यास करे ।
धीरे धीरे धौति को बहार निकाल दो, बहार निकालते वक्त धौति निश्चित किए हुए पात्र मे गिरे वह जरुरि है ताकि धुल मिट्टी से गंदी ना हो ।
धौति वस्त्र को अच्छी तरह से साबुन से धोके साफ करके युक्त स्थान पर रखें ।
धौति बहार निकालने के बाद मुंह, नाक, जिभ और आंखे अच्छी तरह से धो कर साफ़ करे, आवश्यक हो तो दांतुन या ब्रश करे ।

सावचेति:
वमन धौति, दंड धौति का पर्याप्त मात्रा मे अभ्यास करने के बाद हि वस्त्र धौति का अभ्यास करना चाहिए ।
वस्त्र धौति प्रमाण मे कठिन है सावधानि और धैर्य से काम करने से कला को हस्तगत किया जा सकता है ।
अगर धौति गले मे अटक जाती है, थोडा गर्म पानी पीए, धौति थोडा निगले और फीर से धौति को बहार निकाले ।
धौति से पहेले रात को लिया हुआ भोजन हलका एवं बीना मिर्च, तेल का हो वह जरुरि है ।
सुबह खाली पेट शौच के बाद का समय धौति कर्म के लिए अच्छा है ।
गले मे दर्द, टोन्सील्स कि या गेस्ट्रिक प्रोब्लेम है तो धौति कर्म ना करे ।
वस्त्र धौति पेट मे जाना शुरु होने के बाद १५ मिनिट से ज्यादा पेट मे ना रहे इसका ध्यान रखे ।
धौति वस्त्र वहार निकालते वक्त गले मे से थोडा खुन बहार आए तो डरे नहि कुछ दिन धौति कर्म बंध करदे ।

फायदें
धौति कर्म से कफ़ और पित्त जन्य विकार दुर करके चहेरे पर ग्लो एवं शरीर मे हलका पन आता है ।
जुकाम, अस्थमा और एसिडिटी जैसी बिमारिओ मे लाभकारक है ।
शरीर कि अनावश्यक फेट कम होती है और शरीर मे हलकापन आता है ।

गुरूपदिष्ह्ट-मार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्ग्रसेत |
पुनः परत्याहरेछ्छैतदुदितं धौति-कर्म तत || २४ ||

गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार ३ इंच चौडा और १५ फिट लंबा गर्म पानी मे भीगोया हुआ कपडे का पट्टा निगलकर बहार निकाल देने का नाम धौति कर्म है ।

कास-शवास-पलीह-कुष्ह्ठं कफरोगाश्छ विंशतिः |
धौति-कर्म-परभावेण परयान्त्येव न संशयः || २५ ||

धौति कर्म से कफ़,अस्थमा, स्प्लीन का बढ जाना, कुष्ट रोग इत्यादी २० प्रकार के रोग नि:संदेह दुर होते है

वारिसार (शंख प्रक्षालन)

आ क्रिया मे मुखद्वार से लेके मलद्वार तक के मार्ग कि शंख कि तरह सफाइ होती है इसिलिए से इसे शंख प्रक्षालन कहेते है ।
एक बर्तन मे २० से २५ ग्लास शुद्ध पानी मे थोडा नमक डाल के गरम करे, नमक और गरमाहट कि मात्रा शरीर हमारे शरीर के तापमान और खारेपन के बराबर रहेनी चाहिए ।
खडे खडे दो ग्लास पी के दोनो और नौलि के ३-३ आवर्तन करे ।
फिर से दो ग्लास पानी पीए और नौलि के ३-३ आवर्तन करे ।
ये प्रक्रिया करते करते जब नौलि करने मे असमर्थ रहे तब पानी पीके नौलि के स्थान पर नीचे दिए आसनो को क्रमश: करे,

१) भुजंगासन २) कटि चक्रासन ३) पवन मुक्तासन ४) वक्रास

यह प्रक्रिया के दौरान मलत्याग कि इच्छा को दबाए नहि तुरंत मल त्याग कर वापस २ ग्लास पानी पीके उपरोक्त आसनो का क्रम जारी रखे इससे बार बार मलविसर्जन के लिए इच्छा होगी, ऐसे ५ से ७ बार मलत्याग के बाद जैसा पानी पीते है वैसा हि पानी मलविसर्जन मे बहार आता है तब समजना कि हमारा वारिसार धौति कर्म सफलता पुर्वक पुर्ण हुआ ।
पानी पीने मे असमर्थ हो जाए तो पानी पीना बंध करे और थोडा चलना शुरु करे इससे पीआ हुआ पानी मल के साथ बडी आंत मे आगे सरकेगा ।
सावचेति:
मलत्याग मे देर लगे तो थोडा विपरित करनी और शलभलासन करे और थोडा पैदल चले ।
शुरुआत से घी युक्त खीचडी कि व्यवस्था पहेले से तैयार रखे ।
क्रिया के बाद ४ घंटे तक आराम करे ।
उसके बाद घी युक्त खिचडी खाए और आराम करे ।
वारिसार धौति कर्म के दौरान श्रम ना करे, चौबिस घंटे तक दुध, दहि, छास इत्यादि ना ले, खिचडी के अलावा कुछ ग्रहण ना करे ।
यह क्रिया सुबह शौच करने के बाद खाली पेट को करना जरुरि है ।
जिसे पेट कि बिमारी या अल्सर है वह यह क्रिया ना करे ।

फायदे
इस क्रिया से पुराने कब्ज़ कि फरीयाद दुर होती है
शंख प्रक्षालन से वात, पित्त और कफ़ कि बिमारी दुर होति है ।
शरीर मे से अनावश्यक फेट दुर होति है ।
शरीर मे ताज़गी हलकापन और कांति आती है ।

 

 

प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली खुराक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली खुराक चिकित्सा शुद्धि कर्म, जल चिकित्सा, ठण्डी पट्टी, मिटटी की पट्टी, विविध प्रकार के स्नान, मालिश्‍ा प्राकृतिक चिकित्सक, पोषण चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, वानस्पतिक चिकित्सा, आयुर्वेद आदि पौर्वात्य चिकित्सा, होमियोपैथी, छोटी-मोटी शल्यक्रिया, मनोचिकित्सा,  जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, मृदा चिकित्सा, उष्ण टावल से स्वेदन, कटि स्नान, टब स्नान, फुट बाथ, परिषेक, वाष्प स्नान, कुन्जल, नेति आदि का प्रयोग वात जन्य रोग पक्षाद्घात राधृसी, शोध, उदर रोग, प्रत

इस थेरेपी के अनुसार, भोजन प्राकृतिक रूप में लिया जाना चाहिए। ताज़े मौसमी फल, ताज़ी हरी पत्तेदार सब्जियां और अंकुरित भोजन बहुत ही लाभकारी हैं। ये आहार मोटे तौर पर तीन प्रकार में विभाजित हैं जो इस प्रकार हैं: Read More : प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली खुराक चिकित्सा about प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली खुराक चिकित्सा

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