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ओशो – प्रेमपूर्ण हो जाओ
सीने में रह-रह के उबलती है , न पूछ
अपने दिल पे मुझे काबू ही नहीं रहता है ।।
कवि लिखते रहे इंकलाब की बातें भी , बगावत के गीत भी ।
मगर कवियों से कहीं बगावत हो सकती है !
गीत ही रच सकते हैं , गीत ही गुनगुना सकते हैं ।
उनके गीत बांझ है ।
उनके गीत नपुंसक हैं ।
सिवाय ध्यान के न कभी कोई क्रांति हुई है न हो सकती है ।
ध्यान का अर्थ हैः – हटा दो सारी अड़चनें , जो दूसरो ने तुम पर थोप दी है ;
हटा दो सारे विचार और पक्षपात —- जाति के , समाज के ,
देश के , धर्म के , मजहब के , फिरकापरस्ती के , मतवादों के ,
सिध्दांतों के , शास्त्रों के ।
हटा दो सारे पत्थर और सारी चट्टानें और बह जाने दो प्रेम के झरने को ।
साहस चाहिए , क्योंकि तुम्हें भीड़ के विपरीत जाना होगा ।
इसलिए पलटू कहते हैं , — सहज आसिकी नाहिं ।
बडी़ हिम्मत जुटानी होगी । हो सकता है सूली दे समाज ;
आखिर जीसस को दी । हो सकता है गर्दन काट दे ; आखिर मंसूर
और सरमद की काटी !
हो सकता है जहर पिलाए ; आखिर सुकरात को , मीरा को पिलाया ।
मगर प्रेम के लिए सब कुर्बान करने जैसा है ।
और प्रेम को विराट करना है ।
वह व्यक्तियों पर केंद्रित हो जाए तो वासना हो जाता है ।
वह फैलता चला जाए — वृक्षों पर फैले , पहाड़ों पर फैले ,
तारों पर फैले , फैलता चला जाए ।
धीरे-धीरे प्रेम रिश्ता – नाता न रह जाए , बल्कि तुम्हारा गुण हो जाए ।
और अंततः गुण भी न रह जाए , तुम्हारी सत्ता हो जाए ।
तुम प्रेमपूर्ण हो जाओ पहले और फिर प्रेम ही हो जाओ ।
जिस दिन तुम प्रेम हो जाओगे उसी दिन परमात्मा का —–
अनुभव है ।
– # OSHO # –
सहज आसिकी नाहिं ( संत पलटू वाणी )
पांचवां प्रवचन
अब प्रेम के मंदिर हों
से संकलित ।