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ख्याल गायकी के घरानेएक दृष्टि : भाग्यश्री सहस्रबुद्धे
किसी भी ख्याल शैली की उत्पत्ति दो प्रकार से मानी गई है- एक तो किसी व्यक्ति या जाति के नाम से, जैसे सैनी घराना, कव्वाल घराना आदि और दूसरे किसी स्थान के नाम से|
ख्याल वर्तमान में प्रचलित सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है| वस्तुत: एक गायक का चिंतन ख्याल में उभरकर सामने आता है| स्वर एक केंद्र बिंदु है, जिस पर साधक का ध्यान लगता है|
कबीर कह गए हैं- ‘तुम कहौं पुस्तक लेखी, मैं कहौं अंखियन की देखी’, ख्याल का रूप हम ‘अंखियन देखी’ से स्पष्ट कर सकते हैं| यह तो सिद्ध है कि कोई भी प्रवाह पूरे का पूरा समान रूप से किसी एक दिशा में नहीं चलता| कहीं-कहीं से धाराएं आती जाती हैं और परस्पर मिलती जाती हैं| उनसे एक प्रवाह बनता है और सुर-सरिता के रूप में एक अनंत गति को प्राप्त होता है| अपना चिंतन, अपनी तालीम और अपनी ही रुचि को लेकर जो ख्याल बनता है, उसमें गायकी दिखती है और वही गायकी किसी विशिष्ट शैली के तरीके का प्रतिनिधित्व करने लगती है, अन्यथा मेरी-उसकी, सबकी बात कहने से एक खिचड़ी बन जाती है और यह निश्चित गायकी का रूप नहीं ले पाती|
प्राय: यह प्रश्न खड़ा होता है कि, प्रत्येक गायन विधा की अलग-अलग शैलियां क्या हों? यूं देखा जाए, तो साहित्य में अलग-अलग विधाओं को लेकर प्रत्येक की अलग-अलग शैली होती है, चित्र, शिल्प आदि कलाओं में विद्यालय होते हैं| इनकी तुलना में संगीत की ख्याल शैली के भिन्न-भिन्न केंद्र अधिक जीवट वाले, अधिक सांप्रदायिक और कुल मिलाकर रक्त संबंध वाले के अधिक निकट हैं| इसीलिए ख्याल शैलियों के मूल तत्वों का सिद्धांत अनुशासन व परंपरा का निर्वाह है|
यह बात निश्चित है कि ख्याल शैलियों के संगीत को जाने बिना हम प्राचीन अथवा पिछले हिंदुस्तानी संगीत को ठीक तरह से नहीं जान सकते| अकबर के युग से लेकर अब तक के संगीत को आमतौर से आधुनिक संगीत का युग मान सकते हैं, अथवा उस संगीत को जो तानसेन की ध्रुपद शैली और सदारंग-अदारंग की ख्याल गीत शैली से विशेष संबंधित रहा है, हम एक युगांतकारी संगीत का नाम दे सकते हैं| इसी संगीत में शास्त्रों के संगीत का अनुवाद स्वरों से कर, सरस्वती की उपासना से रसिक हृदयों को स्वर सुधार का अमृत चखाया गया|
किसी भी ख्याल शैली की उत्पत्ति दो प्रकार से मानी गई है- एक तो किसी व्यक्ति या जाति के नाम से, जैसे सैनी घराना, कव्वाल घराना आदि और दूसरे किसी स्थान के नाम से, जैसे-ग्वालियर, आगरा, दिल्ली, पटियाला आदि|
कव्वाल बच्चों की ख्याल शैली-
लखनऊ के बादशाह गयासुद्दीन हैदर के जमाने में गायक गुलाम रसूल हुए, उन्हें ख्याल शैली का आदि पुरुष माना गया है| उन्होंने प्रारंभ में ध्रुपद गायन में ही प्रवीणता प्राप्त की थी| इन्हीं के वंशज शक्कर खां, मक्खन खां थे, जिनसे कव्वाल बच्चों की गायकी शुरू होती है|
गुलाम रसूल के वंशजों में बड़े मुहम्मद खां हुए जो इस शैली की कलात्मक व्याख्या करने में सफल हुए| इन्होंने ही इस शैली को ग्वालियर में भी स्थापित किया|
ग्वालियर ख्याल शैली-
सदारंग-अदारंग के समकालीन ही संगीत के अंतिम गायक प्रसिद्ध गायक ‘गुलाम रसूल’ माने गए हैं| १८ वीं शताब्दी में लखनऊ के बादशाह गयासुद्धीन हैदर के समय में ‘गुलाम रसूल’ एक श्रेष्ठ गायक थे, जिनके वंश में शक्कर खां, मक्खन खां नामक दो गायक हुए| इन्हीं शक्कर खां के सुपुत्र बड़े मुहम्मद खां थे, इन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम ग्वालियर में ख्याल गायिकी की स्थापना की गई थी|
डॉ. सुशील कुमार चौबे के मतानुसार ग्वालियर में ख्याल गायकी का सर्वप्रथम प्रचार मक्खन खां के पुत्र नत्थन पीर बख्श के द्वारा हुआ| इन्हीं के वंशज हद्दू खां, हस्सू खां व नत्थे खां ने ग्वालियर की ख्याल गायकी का प्रचार सर्वत्र भारतवर्ष में किया|
नत्थन पीर बख्श महाराजा जनकोजी राव सिंधिया के दरबार में गायक के पद पर नियुक्त थे| इन्हें कादर बख्श तथा पीर बख्श नामक दो लड़के थे|
जनकोजी राव की मृत्यु के पश्चात दौलतराव सिंधिया के समय में बड़े मुहम्मद खां तथा कादर बख्श दोनों ही ग्वालियर में थे| वे ग्वालियर दरबार में ही आश्रित थे| इस प्रकार ग्वालियर दरबार मेंे एक ही वंश परंपरा के दो ख्याल गायक एक साथ विद्यमान थे|
नत्थन पीर बख्श द्वारा ग्वालियर में जिस ख्याल गायकी की स्थापना की गई थी वह भी ध्रुपद के गांभीर्य के सिद्धांत पर आधारित थी| उन्होंने ख्याल शैली में ध्रुपद शैली के अनुशासन का पालन किया| स्वरों की उलट-पुलट व उनके गणितीय चमत्कार को ख्याल में शामिल नहीं किया| ग्वालियर ख्याल गायकी जिसका कलात्मक निर्माण नत्थन पीर बख्श ने किया था ध्रुपद के कलात्मक अनुशासन से ही पूरी तरह संबंधित थी| ग्वालियर की गायकी में ध्रुपद और ख्याल का बंटवारा नहीं किया| नत्थन पीर बख्श द्वारा प्रतिपादित ख्याल शैली को ही संपूर्ण भारतवर्ष में सभी कलाकारों ने अपनाया| आगरा घराने के अन्वेषक घग्घे खुदाबख्श भी इन्हीं के शिष्य थे|
ग्वालियर की ख्याल गायकी के प्रचार व प्रसार में नत्थन पीर बख्श के नाती हस्सू खां, हद्दू खां को हम नहीं भुला सकते|
इस उज्जवल परंपरा का निर्वाह हद्दू खां की शिष्यावली द्वारा हुआ| उनके दो सुपुत्र मुहम्मद खां और रहमत खां तथा भतीजे निसार हुसैन खां ने इस शैली को प्रचारित किया|
ग्वालियर घराने के लिए हद्दू खां के शिष्यों में महाराष्ट्र के बालकृष्ण बुआ इचलकरंजीकर सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए| इन्होंने मेहनत करके ग्वालियर गायकी की सच्ची साधना की थी| इनकी गायकी को बहुत ख्याति मिली थी और इन्हीं को इस बात का श्रेय था कि इन्होंने ग्वालियर गायकी को बहुत सुयोग्य शिष्य दिए| इनके प्रसिद्ध शिष्यों में पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर, मिरासी बुआ, गूंहू बुआ औंधकर, अनंत मनोहर जोशी, पाटे बुआ, मिरासी बुआ, इंगले बुआ आदि थे| इन्होंने अपने सुपुत्र अन्ना बुआ को भी एक तैयार गायक बनाया|
पं. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने ग्वालियर संगीत परंपरा की नींव महाराष्ट्र में डाली| अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए पं. पलुस्कर जी ने ग्वालियर संगीत परंपरा को समाज में उच्च स्थान दिलाया| उनकी शिष्य परंपरा का विस्तार बहुत अधिक था| उनके सुप्रसिद्ध शिष्यों में ओंकार नाथ ठाकुर, विनायक राव पटवर्धन, बी. आर. देवधर और नारायण राव व्यास के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं| महाराष्ट्र संप्रदाय के गायकों में पिछले जमाने में ग्वालियर गायकी के संबंध में जो प्रतिष्ठा ग्वालियर के राजाभैया पूछवाले और कृष्णराव पंडित को मिली वैसी और किसी गायक को नहीं मिली| कृष्णराव पंडित ग्वालियर के सुप्रसिद्ध ख्याल गायक शंकरराव पंडित के सुपुत्र हैं| उन्हीं के शिष्य राजाभैया पूछवाले थे|
१८ वीं शताब्दी ग्वालियर संगीत के इतिहास में ख्याल गायन शैली का स्वर्ग युग माना जाता है| भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों के संगीत रसिक ग्वालियर आकर संगीत शिक्षा ग्रहण करके, उसका प्रचार अपने-अपने प्रांत में करने लगे| ग्वालियर घराने के प्रमुख गायक निम्नानुसार हुए-
शंकर राव पंडित, श्री एकनाथ उर्फ माउ पंडित, राजा भैया पूछवाले, डॉ. कृष्णराव शंकर पंडित, पं. पांडुरंग उर्फ बालासाहेब पूछवाले|
ग्वालियर ख्याल शैली के अन्य प्रतिनिधि-
ग्वालियर ख्याल शैली के प्रसार में कई अन्य कलाकार गायकों का योगदान रहा है| जिनमें सर्वश्री लक्ष्मण कृष्णराव पंडित, डॉ. बालाभाऊ उमड़ेकर, श्री माधवराव उमड़ेकर, गोपीनाथ पंचाक्षरी, प्रो. जी. एस. मौरघोड़े, रामचंद्र राव अग्निहोत्री, विश्वनाथ राव जोशी, एकनाथ सारोलकर, रामचंद्र राव सप्तऋषि, नारायण कृष्णराव पंडित, चंद्रकांत कृष्णराव पंडित, डॉ. प्रभाकर गोहदकर प्रमुख हैं, जिन्होंने इस ख्याल शैली की विशिष्ट तालीम प्राप्त करके, इनके प्रचार प्रसार में योगदान दिया है|
ग्वालियर ख्याल शैली की सर्वप्रथम विशेषता उसकी सरलता और स्पष्टता है| प्राचीन साहित्य और कला का प्रधान गुण था उसकी सरलता और स्पष्टता| ग्वालियर ख्याल शैली में तीनों सप्तकों में घूमने वाली मजबूत मरदाना और शानदार, गमक युक्त तानें होती हैं|
ग्वालियर ख्याल शैली के प्रत्येक रागों में प्राय: आरोही-अवरोही रूप में सीधी तान लेने की कठिन प्रक्रिया आवश्यक मानी गई है| ग्वालियर ख्याल शैली में बोल-तान भी बड़े कलात्मक ढंग से लगाई जाती है| इस शैली की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है- स्वर व लय का मेल| ग्वालियर ख्याल शैली में बड़े ख्यालों का ठेका प्राय: ‘तिलवाड़ा’ ही प्रयुक्त होता है| विभिन्न स्वरूप की एक ही राग में अनेक बंदिशें वेदों के समान याद करना यह ग्वालियर ख्याल शैली की विशेषता है|
आगरा ख्याल शैली-
आगरा ख्याल शैली के सुप्रसिद्ध गायक स्व. खां विलायत हुसैन खां ने भारतीय संगीत नृत्य नाट्य विद्यालय, बड़ौदा में ता. २९ नवम्बर २०१४ के दिन दिए हुए भाषण में कहा है कि ‘हाजी सुजान खां हमारे कुटुंब की जड़ हैं|’
हाजी सुजान खां के अलकदास, मलकदास, खलकदास और लंबगदास ये चारों पुत्र थे| इनमें से मलकदास के दोनों पुत्रों श्यामरंग व सरसरंग ने ध्रुपद गायन में ही प्रवीणता प्राप्त की|
इस घराने के लिए ख्याल शैली के सूत्रधारक घग्घे खुदाबख्श हुए|
ग्वालियर गायकी से ही आगरा ख्याल गायन शैली का जन्म हुआ और उसके प्रथम प्रचारक घग्घे खुदाबख्श ही हुए जिन्होंने ध्रुपद, धमार गायकी के इस घराने में ख्याल शैली की स्थापना की|
आगरा ख्याल घराने के प्रमुख कलाकार निम्नानुसार हुए-
गुलाब अब्बास खां, कल्लन खां, नत्थन खां, मुहम्मद खां, अब्दुल्ला खां, विलायत हुसैन खां, पं. भास्कर राव बखले, मर्हूम खां साहब फैयाज खां|
संगीत के दो घटक माने गए हैं| एक स्वर और दूसरा लय| आगरा घराने को लय प्रधान गायकी मानना ज्यादा श्रेयस्कर होगा|
१) मूल परंपरा ध्रुपद, धमार की थी और इसमें भी नौहार बानी प्रमुख रही|
२) घग्घे खुदाबख्श से इस घराने में ख्याल गायन का प्रवेश हुआ और ख्याल शैली ग्वालियर से आई|
३) इस ख्याल शैली पर ध्रुपद, धमार अंगों का गहरा असर पड़ा| इसीलिए आगरा ख्याल शैली लयप्रधान गायकी मानी जाती है|
दिल्ली ख्याल शैली-
मध्य युग से लेकर १९वीं शताब्दी के अंत तक और २०वीं शताब्दी के प्रथम भाग के कुछ वर्षों तक दिल्ली हिंदुस्तानी संगीत का केंद्र था| दिल्ली के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर (ई. १८३७) ख्याल गायकी के पोषक तथा ख्याल गीतों के रचियता भी थे| इन्हीं के गुरू मियां अचपल (गुलाम हुसैन) दिल्ली ख्याल शैली के संस्थापक माने जाते हैं|
दिल्ली ख्याल के प्रमुख गायक मियां अचपल, तानरस खां, उमराव खां, सरदार खां, गुलाम गौंस, शब्बू खां रहे|
इसके अतिरिक्त दिल्ली ख्याल शैली के प्रारंभिक दौर में ब़डे छंगे खां, शादी खां, मुराद खां, बहादुर खां, दिलावर खां, मीर नारिस अहमद, नूर खां, युसूफ खां, वजीर खां, सद्रूद्दीन खां आदि भी प्रसिद्ध गायक हुए|
दिल्ली ख्याल शैली के मूल तत्व-
दिल्ली ख्याल शैली की अपनी एक विशिष्ट गायकी है| इसकी बंदिशों की लय विलंबित है| सूत, मीड, गमक और गमक का काम इस शैली में विशेष रूप से दिखाई देता है| मध्य लय में स्वरों का आपसी लड़-गुंथाव तथा जोड़-तोड़ का काम इस शैली की प्रमुख विशेषता है| इसकी तानें कठिन, जटिल व पेंच वाली होती हैं|
जयपुर ख्याल शैली-
भारतवर्ष में कुछ रिसायतें विशेष रूप से संगीत के क्षेत्र में प्रमुख रही हैं| यह वह रियासतें थीं जिन्हें केवल संगीत से ही प्रेम नहीं था, वरन् इन्होंने संगीत की उन्नति के लिए भी बहुत कुछ किया| जयपुर ऐसी रियासतों में प्रमुख मानी गई है|
बहराम खां की ध्रुपद शैली और आगरे के घग्घे खुदाबख्श की ख्याल शैली है साथ कव्वाल बच्चों के घराने के ख्याल गायक मुबारक अली खां के समन्वयन से जयपुर ख्याल शैली का सूत्रपात हुआ| एक तरह से भिन्न-भिन्न पुष्प-गुच्छों से जयपुर के गुलदस्ते रूपी शैली विशिष्ट का जन्म हुआ और जो अपना अमिट प्रभाव आधुनिक संगीत पर डाल रहा है|
कुछ मत के अनुसार इस घराने के जन्मदाता ‘मनरंग’ बताए जाते हैं| उनके वंशज मुहम्मद अली खां हुए और मुहम्मद अली खां के पुत्र आशिक अली खां हुए| आगे चलकर इस शैली की दो उप-शाखाएं हो गई, जिसमें प्रथम तो पटियाला घराना इस नाम से प्रसिद्ध हुई, जबकि दूसरी अल्लादिया खां के घराने के नाम से प्रसिद्ध हुई|
जयपुर घराने का आधुनिक संगीत में नाम रोशन करने में जिन महान् कलाकारों ने योगदान दिया, वे हैं सम्राट खां अल्लादिया खां, खां हैदर खां, मंजी खां, भूर्जी खां, नत्थन खां, सुश्री केसबाई केरकर, श्रीमती मूगूबाई कुर्डीकर, पं. गोविंद बुआ शालीग्राम, श्रीमती लक्ष्मी बाई जाधव, पं. मोहन राव पालेकर, श्रीमती किशोरी अमोनकर|
जयपुर ख्याल शैली बहुत ही सूक्ष्म और पेंचदार है| उसके अधिकांश प्रकार टेढ़े और वक्र हैं| स्वर का प्रत्येक तार दूसरे तार में महत्वपूर्ण फर्क के साथ किस प्रकार उलझाना, इसका मानों इस शैली में एक शास्त्र ही बना रखा है|
जयपुर ख्याल शैली की विशेषताओं को इस प्रकार देखा जा सकता है-
१. आवाज लागने की स्वतंत्र शैली
२. खुली आवाज का गायन
३. चीज की संक्षिप्त बंदिश
४. वक्र तानें तथा आलाप गायन व छोटी-छोटी तानों से राग बढ़त
५. ख्याल गायन की विशेष बंदिश|
पटियाला ख्याल शैली-
ख्याल शैली के अन्य घरानों की तरह पटियाला ख्याल शैली वर्तमान में प्रचलित ख्याल शैली है, जिसे पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई है| वस्तुत: पंजाब में लोक संगीत के अतिरिक्त शास्त्रीय संगीत का भी बोलबाला रहा है| वहां के संगीतज्ञों ने इस क्षेत्र में प्रसिद्धि भी प्राप्त की| पटियाला ख्याल शैली भी पंजाब की धरती की ही उपज है|
पटियाला ख्याल शैली का जन्मदाता हम अलीबख्श और फतहअली खां को मान सकते हैं| परंतु वर्तमान में पटियाला ख्याल शैली का सर्वाधिक श्रेष्ठ कलाकार बड़े गुलाम अली खां को माना जाता है| वस्तुत: आधुनिक युग में इस ख्याल शैली को प्रचारित करने में खां साहब का महत्वपूर्ण योगदान है| अत: अधिकांश विद्वानों का विचार बड़े गुलामअली खां को ही पटियाला ख्याल शैली का सुत्रधार मानने का है| परंतु इसका जन्म भी ध्रुपद की नींव पर हुआ है|
पटियाला ख्याल शैली के प्रमुख गायक अलीबख्श-फतेहअली खां, आशिक अली खां, मियां जान खां, काले खां, कुसुर के अली बख्श, अख्तर हुसैन रहे|
पटियाला ख्याल शैली को बड़े गुलाम अली खां का ही पर्यायवाची समझा जाता है| इस ख्याल शैली में दमदार आवाज का बहुत महत्व है| आवाज को पूरी तरह फेंककर लगाना इस ख्याल शैली का विशेषता है| प्रत्येक स्वर कण-युक्त लगाना और आरोह क्रम में एक स्वर से दूसरे तक चढ़ते जाना इस ख्याल शैली का अपना वैशिष्ट सिद्ध करता है| स्वर और लय के साथ-साथ भावुकता व संवेदनशीलता का इस शैली में भरपूर स्थान है|
किराना ख्याल शैली-
ग्वालियर, आगरा जैसे प्रसिद्ध घरानों के बाद किराना गायन शैली का भी महत्वपूर्ण स्थान है| इस शैली के जीवनकाल को पचास-साठ वर्ष से अधिक नहीं हुए हैं| जब कभी इस शैली का नाम लिया जाता है तो उसके आधुनिक प्रचार की ही बात उठती है|
किराना ख्याल शैली के प्रथम अन्वेषक प्राय: आब्दुल करीब खां साहेब को माना जाता है| इसके विपरीत हिंदुस्तानी संगीत के कुछ विद्वानों और विचारकों का दृढ़ विश्वास है कि इस युग में किराना गायकी के अन्वेषक और सर्वश्रेष्ठ गायक बहरे वहीद खां थे, जो लाहौर में बहुत काल तक रहे| अब्दुल वहीद खां जिन्हें बहरे वहीद खां भी कहा जाता था, इस गायकी की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या करते थे| नि:संदेह, उन्होंने ही इस शैली का सर्वाधिक प्रचार किया|
किराना ख्याल शैली के प्रमुख गायक अब्दुल करीब खां, अब्दुल वहीद खां, श्रीमती हीरा बाई बहोदेकर, सवाई गंधर्व, श्रीमती गंगूबाई हंगल, पं. भीमसेन जोशी आदि रहे|
किराना ख्याल शैली यथार्थ में सारंगी वादन की परंपरा को निभाती रही है| इससे इस गायकी में स्वर की तरफ झुकाव रहा है| स्वरों का सुरीलापन और चेनदारी इस घराने की खास विशेषता है| गायकी में लगाव, लोच और मींड का काम अधिक होता है| किराना ख्याल शैली में ताल की गति अति विलंबित होती है| इस शैली में बंदिश के भराव तथा सजाव के लिए अधिक गुंजाइश नहीं होती| द्रुत और तैयार तानों के आभूषणों से ही यह शैली श्रृंगार करती है|
सहसवान की ख्याल शैली-
ग्वालियर, आगरा, दिल्ली इत्यादि की तरह संगीत के क्षेत्र में सहसवान जैसे छोटे से शहर ने भी पर्याप्त यश प्राप्त किया| यद्यपि इस शैली के सभी कलाकार मूल रूप से किसी न किसी बड़े ख्याल शैली से जुड़े थे| तथापि इस क्षेत्र विशेष के कारण उनकी इसी शैली के रूप में ख्याति हुई|
सहसवान ख्याल शैली का जन्मदाता इनायत हुसैन को ही माना जाता है| यह सहसवान के ही निवासी थे| इनके प्रमुख शिष्यों में ऐसे नामी गायक थे जैसे- ब़डे बुआ, नजीर खां.. आदिम हुसैन और मुश्ताक हुसैन खां, जिन्होंने इनकी ख्याति में चार चांद लगाए| इनके अन्य शिष्यों में डॉ. फिदा हुसैन खां बड़ौदा, उ. हैदर हुसैन खां रामपुर, उ. हफीज खां (गुहयानी) मैसूर, उ. अमन अली खां पूना, ग्वालियर के महाराजा के भाई भइया गनपत राव आदि प्रमुख थे|
सहसवान की ख्याल शैली सीधी-सादी और रोचक गायकी है| यह गायकी स्थाई और अंतरा, उसके बाद बढ़त व अंत में सीधी-सीधी तानों पर आधारित है| राग की बढ़त और चीज की बढ़त इस गायकी के प्रधान गुण हैं| एक निर्दोषपूर्ण गायकी का रूप सहसवान की ख्याल शैली में दिखाई देता है| कला चमत्कार की न्यूनता होते हुए भी इस शैली में एक तरह का स्वाभाविक आकर्षण था जो सरलता के सिद्धांत का समर्थन करता था| इस गायकी में भावुकता का अभाव था, परंतु शुद्धता का प्राचुर्य था|
इस तरह एक छोटे से शहर ने अपनी नवीन ख्याल शैली की स्थापना कर पर्याप्त ख्याति प्राप्त की|
अस्तु, ख्याल के इन घरानों ने आज तक अपनी परंपरा का निर्वाह किया है और निसंदेह इसी से ख्याल शैली का भविष्य उज्जवल कहा जा सकता है|
अडाना | अभोगी कान्ह्डा | अल्हैया बिलावल | अल्हैयाबिलावल | अहीर भैरव | अहीरभैरव | आनंदभैरव | आसावरो | ककुभ | कलावती | काफ़ी | काफी | कामोद | कालिंगड़ा जोगिया | कीरवाणी | केदार | कोमल-रिषभ आसावरी | कौशिक कान्हड़ा | कौशिक ध्वनी (भिन्न-षड्ज) | कौसी | कान्ह्डा | खंबावती | खमाज | खम्बावती | गारा | गुणकली | गुर्जरी तोडी | गोपिका बसन्त | गोरख कल्याण | गौड मल्हार | गौड सारंग | गौड़मल्लार | गौड़सारंग | गौरी | गौरी (भैरव अंग) |चन्द्रकान्त | चन्द्रकौन्स | चारुकेशी | छाया-नट | छायानट | जयजयवन्ती | जयतकल्याण | जलधर | केदार | जेजैवंती | जेतश्री | जैत | जैनपुरी | जोग | जोगकौंस | जोगिया | जोगेश्वरी | जौनपुरी | झिंझोटी | टंकी | तिलंग | तिलंग बहार | तिलककामोद | तोडी | त्रिवेणी | दरबारी कान्हड़ा | दरबारी कान्हडा | दीपक | दुर्गा | दुर्गा द्वितीय | देव गन्धार | देवगंधार | देवगिरि बिलावल | देवगिरी | देवर्गाधार | देवश्री | देवसाख | देश | देशकार | देस | देसी | धनाश्री | धानी | नंद | नट भैरव | नट राग | नटबिलावल | नायकी कान्ह्डा | नायकी द्वितीय | नायकीकान्हड़ा | नारायणी | पंचम | पंचम जोगेश्वरी | पटदीप | पटदीपकी | पटमंजरी | परज | परमेश्वरी | पहाड़ी | पीलू | पूरिया | पूरिया कल्याण | पूरिया धनाश्री | पूर्याधनाश्री | पूर्वी | प्रभात | बंगालभैरव | बड़हंससारंग | बसन्त | बसन्त मुखारी | बहार | बागेश्री | बागेश्वरी | बिलावल शुद्ध | बिलासखानी तोडी | बिहाग | बैरागी | बैरागी तोडी | भंखार | भटियार | भीम | भीमपलासी | भूपाल तोडी | भूपाली | भैरव | भैरवी | मधमाद सारंग | मधुकौंस | मधुवन्ती | मध्यमादि सारंग | मलुहा | मल्हार | मांड | मारवा | मारू बिहाग | मालकौंस | मालकौन्स | मालगुंजी | मालश्री | मालीगौरा | मियाँ की मल्लार | मियाँ की सारंग | मुलतानी | मेघ | मेघ मल्हार | मेघरंजनी | मोहनकौन्स | यमन | यमनी | रागेश्री | रागेश्वरी | रामकली | रामदासी मल्हार | लंका-दहन सारंग | लच्छासाख |ललिट | ललित | वराटी | वसंत | वाचस्पती | विभाग | विभास | विलासखानी तोड़ी | विहाग | वृन्दावनी सारंग | शंकरा | शहाना | शहाना कान्ह्डा | शिवभैरव | शिवरंजनी | शुक्लबिलावल | शुद्ध कल्याण | शुद्ध मल्लार | शुद्ध सारंग | शोभावरी | श्याम | श्याम कल्याण | श्री | श्रीराग | षट्राग | सरपर्दा | सरस्वती | सरस्वती केदार | साजगिरी | सामंतसारंग | सारंग (बृंदावनी सारंग) | सिंदूरा | सिंधुभैरवी | सिन्धुरा | सुघराई | सुन्दरकली | सुन्दरकौन्स | सूरदासी मल्हार | सूरमल्लार | सूहा | सैंधवी | सोरठ | सोहनी | सौराष्ट्रटंक | हंसकंकणी | हंसकिंकिणी | हंसध्वनी | हमीर | हरिकौन्स | हामीर | हिंदोल | हिन्डोल | हेमंत |हेमकल्याण | हेमश्री |