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नये मीडिया से जुड़ा एक जोखिम सामाजिक क़िस्म का

न्यू यॉर्कर में 1993 में एक कार्टून प्रकाशित हुआ था जिसमें एक कुत्ता कम्प्यूटर के सामने बैठा है और साथ बैठे अपने सहयोगी को समझाते हुए कह रहा है, “इंटरनेट में, कोई नहीं जानता कि तुम कुत्ते हो।” (जेन बी सिंगर, ऑनलाइन जर्नलिज़्म ऐंड एथिक्स, अध्याय एथिक्स एंड द लॉ, पृ 90)।
यहां आशय ये है कि इंटरनेट में आपकी पहचान गुप्त रहती है। जब तक आप न चाहें आपको कोई नहीं जान सकता। ये स्वनिर्मित गुमनामी ही एक अदृश्यता की ओर ले जाती है। एक ऐसी अवस्था जहां आपको भौतिक उपस्थिति की ज़रूरत नहीं है। आपको सदेह कहीं किसी के समक्ष पेश नहीं होना है। इस तरह आप इंटरनेट पर एक तरह की “देहमुक्ति” के साथ विचरण करते रह सकते हैं। ऑपरेट आप उसे सदेह ही कर रहे होते हैं। इंटरनेट की विद्वान शेरी टर्कल ने अपनी किताब, “लाइफ़ ऑन स्क्रीनः आईडेंटिटी इन द एज ऑफ द इंटरनेट” (1995) में बताया है कि कम्प्यूटर जनित संचार (कम्प्यटूर मीडिएटड कम्यूनिकेशन-सीएमसी) के ज़रिए लोगों के पास अपनी “पुनर्खोज” कर सकने की प्रचुर संभावनाएं रहती हैं।
लेकिन सवाल यही है कि क्या ख़ुद को नए सिरे से ढूंढने की वास्तव में क्या कोई ज़रूरत है भी या ये जुनून या चाहत है। अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि एक व्यक्ति नये मीडिया में अपनी पहचान बिना उद्घाटित किए आवाजाही कर रहा है तो क्या वो गलत है। क्या उसे अदृश्य रहने की ज़रूरत है। नया मीडिया वैयक्तिक आज़ादी को तब तक नहीं छीनता जब तक कि आप ख़ुद ऐसा न चाहें। ये उसका एक गुण है। यूज़र के तौर पर चुनौती यही है कि वो इस आज़ादी को किस रूप में समझता है, कैसे इसे एन्ज्वॉय करता है। चिंता की बात ये है कि नये मीडिया की इस सौगात का इस्तेमाल कई यूज़र फ़र्ज़ी एकाउंट बनाने, किसी को गुमराह करने या भावनात्मक शोषण या आर्थिक फ़ायदा उठाने के लिए करते पाये गये हैं। इस मामले में नये मीडिया से जुड़े क़ानून भी एक सीमा के बाद लाचार ही नज़र आते हैं।
नये मीडिया से जुड़ा एक जोखिम सामाजिक क़िस्म का भी है। मिसाल के लिए फ़ेसबुक को ही लें। इस लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग वेबसाइट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या करोड़ों में है। करोड़ो फॉलोअर हैं। एक अत्यंत विस्तृत वर्चुअल समाज बन जाता है। वर्चुअल दोस्तियां बेशुमार होती हैं। अनंत रूप से संचार में मगन दुनिया फैली हुई है, लेकिन वास्तविक जीवन में, ऑफ़लाइन हो जाने पर यही यूज़र एकदम अलगथलग और समाज से कटे हुए नज़र आते हैं। संचार की प्रक्रिया सिकुड़ जाती है।
शहरी जीवन की आपाधापी, बढ़ते उपभोक्तावाद और जीवन शैलियों में आए बदलावों ने लोगों को एक दूसरे से संवादहीनता की स्थिति में ला दिया है। लेकिन ताज्जुब है कि लोगों की वास्तविक जीवन की यही प्रवृत्ति सोशल मीडिया पर आते ही हिरन हो जाती है। वहां वो एकदम बेलौस, बेतकल्लुफ़ और संवादप्रिय बन जाता है। इस तरह नये मीडिया पर ये तोहमत भी लगाई जाती है कि वो यूज़र को समाजविमुख या असामाजिक भी बनाता है। लेकिन यहां पर ये बात फिर से ग़ौरतलब है कि नये मीडिया ने जो सुविधा और आज़ादी उपलब्ध कराई है उसका विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की ज़िम्मेदारी यूज़र पर ही है। नये मीडिया ने अवरोधों से आज़ादी हासिल कराई है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि ज़िम्मेदारियों से भी मुक्त हो जाएं।