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'राग' शब्द संस्कृत की 'रंज्' धातु से बना है
'राग' शब्द संस्कृत की 'रंज्' धातु से बना है। रंज् का अर्थ है रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी तरह संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंगजाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना यालीन हो जाना। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही राग कहलाती है।
हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात सेे निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। आरोह का अर्थ है चढना औरअवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई केआधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँचीध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिलतक पहुँचते हैं उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को आरोह कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को अवरोह कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’और छःस्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है। यदि आरोह में सातऔर अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इसतरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भीकहते हैं। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ रागही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है। आरोह में 7 और अवरोह में भी 7 स्वर होनेपर ‘सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति’ बनती है जिससे केवल एक ही राग बनसकता है। वहीं आरोह में 7 और अवरोग में 6 स्वर होने पर ‘सम्पूर्णषाडव जाति’ बनती है।
कम से कम पाँच और अधिक से अधिक ७ स्वरों से मिल कर राग बनताहै। राग को गाया बजाया जाता है और ये कर्णप्रिय होता है। किसी रागविशेष को विभिन्न तरह से गा-बजा कर उसके लक्षण दिखाये जाते है,जैसे आलाप कर के या कोई बंदिश या गीत उस राग विशेष के स्वरों केअनुशासन में रहकर गा के आदि।
राग का प्राचीनतम उल्लेख सामवेद में है। वैदिक काल में ज्यादा रागप्रयुक्त होते थे, किन्तु समय के साथ साथ उपयुक्त राग कम होते गये।सुगम संगीत व अर्धशास्त्रीय गायनशैली में किन्ही गिने चुने रागों व तालोंका प्रयोग होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में रागों की भरपूर विभिन्नतापाई जाती है।
हिन्दुस्तानी पद्धति इस्लामी राजाओं की छत्रच्छाया में पली बढी, अतःइसमें पश्चिमी और इस्लामी संगीत का सम्मिश्रण हुआ। इसके अलावाइस्लामी शासन के तहत कर्मकांडों में संगीत की प्रकृति बदलती गई।नतीजतन हिन्दुस्तानी संगीत व राग अपने पुरातन कर्नाटिक स्वरूप सेकाफी भिन्न हैं।
रागों का विभाजन मूलरूप से थाट से किया जाता है। हिन्दुस्तानी पद्धतिमें ३२ थाट हैं, किन्तु उनमें से केवल १० का प्रयोग होता है। कर्नाटकसंगीत में ७२ थाट माने जाते हैं।
शब्दावली
'राग' एक संस्कृत शब्द है । इसकी उत्पत्ति 'रंज' धातु से हुई है, जिसकाअर्थ है - 'रंगना' । महाभारत काल में इसका अर्थ प्रेम और स्नेह आदिअर्थों में भी हुआ है।
इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बृहद्देशी में हुआ, जहाँ इसका अर्थ "ध्वनिका कर्णप्रिय आरोह-अवरोह" बताया गया है ।
'रागिनी' राग का स्त्री रूप ही समझा गया है ।
राग की प्रकृति
राग का मूल रूप हिन्दुस्तानी संगीत के 'बिलावल ठाट' को मान गया है ।इसके अंतर्गत सुर 'शुद्ध' और 'कोमल' दो भागों में विभक्त हैं
अडाना | अभोगी कान्ह्डा | अल्हैया बिलावल | अल्हैयाबिलावल | अहीर भैरव | अहीरभैरव | आनंदभैरव | आसावरो | ककुभ | कलावती | काफ़ी | काफी | कामोद | कालिंगड़ा जोगिया | कीरवाणी | केदार | कोमल-रिषभ आसावरी | कौशिक कान्हड़ा | कौशिक ध्वनी (भिन्न-षड्ज) | कौसी | कान्ह्डा | खंबावती | खमाज | खम्बावती | गारा | गुणकली | गुर्जरी तोडी | गोपिका बसन्त | गोरख कल्याण | गौड मल्हार | गौड सारंग | गौड़मल्लार | गौड़सारंग | गौरी | गौरी (भैरव अंग) |चन्द्रकान्त | चन्द्रकौन्स | चारुकेशी | छाया-नट | छायानट | जयजयवन्ती | जयतकल्याण | जलधर | केदार | जेजैवंती | जेतश्री | जैत | जैनपुरी | जोग | जोगकौंस | जोगिया | जोगेश्वरी | जौनपुरी | झिंझोटी | टंकी | तिलंग | तिलंग बहार | तिलककामोद | तोडी | त्रिवेणी | दरबारी कान्हड़ा | दरबारी कान्हडा | दीपक | दुर्गा | दुर्गा द्वितीय | देव गन्धार | देवगंधार | देवगिरि बिलावल | देवगिरी | देवर्गाधार | देवश्री | देवसाख | देश | देशकार | देस | देसी | धनाश्री | धानी | नंद | नट भैरव | नट राग | नटबिलावल | नायकी कान्ह्डा | नायकी द्वितीय | नायकीकान्हड़ा | नारायणी | पंचम | पंचम जोगेश्वरी | पटदीप | पटदीपकी | पटमंजरी | परज | परमेश्वरी | पहाड़ी | पीलू | पूरिया | पूरिया कल्याण | पूरिया धनाश्री | पूर्याधनाश्री | पूर्वी | प्रभात | बंगालभैरव | बड़हंससारंग | बसन्त | बसन्त मुखारी | बहार | बागेश्री | बागेश्वरी | बिलावल शुद्ध | बिलासखानी तोडी | बिहाग | बैरागी | बैरागी तोडी | भंखार | भटियार | भीम | भीमपलासी | भूपाल तोडी | भूपाली | भैरव | भैरवी | मधमाद सारंग | मधुकौंस | मधुवन्ती | मध्यमादि सारंग | मलुहा | मल्हार | मांड | मारवा | मारू बिहाग | मालकौंस | मालकौन्स | मालगुंजी | मालश्री | मालीगौरा | मियाँ की मल्लार | मियाँ की सारंग | मुलतानी | मेघ | मेघ मल्हार | मेघरंजनी | मोहनकौन्स | यमन | यमनी | रागेश्री | रागेश्वरी | रामकली | रामदासी मल्हार | लंका-दहन सारंग | लच्छासाख |ललिट | ललित | वराटी | वसंत | वाचस्पती | विभाग | विभास | विलासखानी तोड़ी | विहाग | वृन्दावनी सारंग | शंकरा | शहाना | शहाना कान्ह्डा | शिवभैरव | शिवरंजनी | शुक्लबिलावल | शुद्ध कल्याण | शुद्ध मल्लार | शुद्ध सारंग | शोभावरी | श्याम | श्याम कल्याण | श्री | श्रीराग | षट्राग | सरपर्दा | सरस्वती | सरस्वती केदार | साजगिरी | सामंतसारंग | सारंग (बृंदावनी सारंग) | सिंदूरा | सिंधुभैरवी | सिन्धुरा | सुघराई | सुन्दरकली | सुन्दरकौन्स | सूरदासी मल्हार | सूरमल्लार | सूहा | सैंधवी | सोरठ | सोहनी | सौराष्ट्रटंक | हंसकंकणी | हंसकिंकिणी | हंसध्वनी | हमीर | हरिकौन्स | हामीर | हिंदोल | हिन्डोल | हेमंत |हेमकल्याण | हेमश्री |