ओशो – पहले विचार फिर निर्विचार !

पहले विचार फिर निर्विचार

मनुष्य को समझने के लिए सबसे पहला तथ्य यह समझ लेना जरुरी है कि मनुष्य के जीवन में जो चीजें सहयोगी होती हैं , 

एक सीमा पर जाकर वे ही चीजें बाधक हो जाती हैं । अगर कोई 

आदमी सोचे भी , विचार भी करे , तो भी इस महत्वपूर्ण तथ्य का

एकदम से दर्शन नहीं होता है ।

क्योंकि हम सोचते हैं , जो सहायक है , वह कभी बाधक नहीं होगा । लेकिन हर सहायक चीज एक सीमा पर बाधक हो जाती है 
अगर कोई आदमी किसी मकान की सीढ़ियां चढ़ता हो , सीढियां बिना चढे़ वह मकान के ऊपर नहीं पहुंच सकता ।

लेकिन अगर सीढियों पर ही रुक जाये , तो भी मकान के ऊपर नहीं पहुंच सकता है । सीढियां चढा़ती भी हैं , रोक भी सकती हैं 
कोई आदमी नाव से नदी पार करे । अगर नाव पर सवार न हो , तो नदी के पार नहीं जा सकता है ; लेकिन नाव पर ही सवार रह

जाये , तो भी नदी के पार नहीं जा सकता ।

एक किनारे पर नाव पकड़ लेनी पड़ती है , दूसरे किनारे पर छोड़

देनी पड़ती है ।

नाव को पकड़ने और छोड़ने , दोनो की क्षमता हो , तो ही आदमी 

नदी पार करेगा ।
यह ध्यान रहे — जीवन बहुत बडा़ है , विचार बहुत छोटे हैं ।

जीवन बहुत विराट है , विचार बहुत क्षुद्र हैं ।

विचार हम करते हैं । हमारी सीमा ही विचार की सीमा भी है ।

हम असीम नहीं हैं । जगत असीम है ।

वह जो है , वह अनंत है । उसका न कोई प्रारम्भ है , न कोई समाप्ति है । हम पैदा होंगे और मर जायेंगे ।

एक क्षण हमारा जन्म है और एक क्षण हमारी समाप्ति है ।

छोटी-सी , एक छोटे-से घेरे में हमारी समझ है ।

उस छोटी-सी समझ को अगर हम सत्य समझ लें , तो हमने अपनी आत्मा के पक्षी को बंद कर दिया — ऐसी ही दीवालों में कि – धीरे-धीरे वह भूल ही जायेगा कि उड़ना क्या है !
केवल वे ही लोग उड़ सकते हैं अंतरिक्ष में , अंतर के अंतरिक्ष में ,

भीतर के आकाश में , जो विचार को छोड़ने की क्षमता रखते हैं ।

लेकिन छोड़ वही सकता है , जिसके पास विचार हो ।
कुछ लोग सोचते हैं — जब विचार छोड़ देना है , तो विचार करने की जरुरत क्या है ।

विचार ही मत करो । तो आदमी मूढ़ रह जाता है । तो आदमी जड़ रह जाता है ।

वे जो विचार नहीं करते हैं , वे जड़ रह जाते हैं , उनका कोई विकास नहीं होता क्योंकि वे सीढी़ पर पैर ही नहीं रखते ।

लेकिन वे शास्त्रों में से उल्लेख बतायेंगे कि देखो , शास्त्रों में लिखा है —- विचार छोड़ दो , तर्क छोड़ दो ।

जिस चीज को छोड़ने के लिए लिखा है , उसे हम करते ही नहीं ।

न हम तर्क करते हैं , न विचार करते हैं — हम तो विश्वास करते हैं , क्योंकि विश्वास करने में न विचार करना पड़ता है , न तर्क 

करना पड़ता है ।
लाखों लोग विश्वास में जकड़कर मर जाते हैं , लेकिन कुछ लोग 

हिम्मत करते हैं विचार करने की ।

वे कहते हैं हम विचार करेंगे , क्योंकि जो हमें ठीक दिखाई नहीं पड़ता , उसे हम कैसे मान सकते हैं ।

हम तर्क करेंगे , हम बुध्दि का विकास करेंगे । ऐसे सारे लोग बहुत 

विचार करते हैं , और फिर धीरे-धीरे विचार से पकड़ जाते हैं और

विचार में ही समाप्त हो जाते हैं ।

विश्वास करने वाला मन भी समाप्त हो जाता है , क्योंकि सीढी़ पर

नहीं चढ़ता , और सिर्फ विचार करने वाला भी समाप्त हो जाता है

क्योंकि सीढी़ पर ही रुक जाता है ।
पूरब के मुल्कों ने पहला काम करके अपने को नष्ट कर लिया है —– विश्वास करके ।

इसलिए पूरब में विज्ञान का जन्म नहीं हुआ । विज्ञान का जन्म न

होना — पूरब की हत्या हो गयी ।

कोई साइंस विकसित न हो सकी , क्योंकि विचार के बिना विज्ञान 

कैसे पैदा होगा ? 

जब हम सोचेंगे ही नहीं , तो जीवन के तथ्यों का उदघाटन कैसे होगा ? पूरब ने कहा कि विचार में तो आदमी कैद हो जाता है ,

इसलिए हमें विचार नहीं करना है ।

और विचार नहीं करने के कारण पूरब कैद हो गया — विश्वास में 

अंधी श्रद्धा में , सुपरस्टीशन में ।

जो लोग पूरब में पैदा हुए , वे चाहे ऊपर-ऊपर कितना ही विचार 

करने लगे , भीतर उनके अंधविश्वास मौजूद रहता है ।
हमारा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ विचारक भी विचारक नहीं है । कहीं न कहीं थोड़ी गहराई में जाने पर पता चलेगा कि अंधविश्वास शुरु हो गया 

थोड़ी-बहुत देर तक तड़फडा़येगा , फिर आखिर में कहेगा कि विश्वास ही ठीक है । विचार करने से क्या फायदा है ? 

और हमें इस तरह की बातें बहुत अपील करती हैं ।
गांधी जी हमारे बीच थे । वे हमेशा यह कहते थे कि मेरी अंतर्वाणी

कह रही है कि यही सच है । अब यह विचार करने से बचने की 

तरकीब है ।

आपकी अंतर्वाणी कह रही है कि सच है , और दूसरे की – अंतर्वाणी कह रही है कि यह सच नहीं है ।

फिर कैसे तय होगा ?                                                                 हिन्दुस्तान में चालीस करोड़ लोग हैं ( प्रवचन समयानुसार 1969 )

हर एक की अंतर्वाणी कह सकती है कि सत्य कुछ और है ।

जिन्ना की अंतर्वाणी कुछ दूसरी बात कहती है , और जिन्ना भी मानता है कि ईश्वर ही बोल रहा है मेरे भीतर ।

और गांधी की अंतर्वाणी दूसरी बात कहती है ; और गोडसे की अंतर्वाणी तीसरी बात कहती है ।

किसकी अंतर्वाणी सच है ?
विचार किए बिना तय नहीं हो सकता । लेकिन जितने भी लोग 

अंधश्रध्दा को भीतर पकडे़ बैठे हैं , वे कहेंगेः “नहीं ; इस पर विचार करने की जरुरत नहीं है ; यह ईश्वर की आवाज है ।

हमें जो मालूम हो रहा है , वह बिलकुल ठीक है ।

विश्वास करने वाला विचार करने को राजी नहीं है ।

सिर्फ घोषणा करता है कि यही ठीक है ।
जिन्दगी विचार से चलती है । विचार कसौटी है ।

इसलिए पश्चिम के लोगों ने विश्वास को तोड़ दिया कि उसका कोई

अर्थ नहीं है ।

वह जकड़ लेता है विचार को । विचार से विज्ञान पैदा हुआ ।

विचार से तर्क पैदा हुआ । 

विचार से सारी अंध-श्रध्दाएं टूट गयीं पश्चिम की ।

लेकिन अदभुत घटना घट गयी कि जितना विश्वास में आदमी बंधा था , उतना ही विचार में बंध गया ।

बंधन बदल गये । बंधन खत्म नहीं हुए । कडी़यां बदल गयीं ।

अंधविश्वास की जंजीरों की जगह विचार की जंजीर आ गयीं ।
पश्चिम ने विश्वास छोड़ दिया , तो विज्ञान पैदा हुआ ।

पूरब के मुल्क मर गये इसलिए कि विज्ञान पैदा नहीं कर पाये , और पश्चिम के मुल्क मरने के करीब पहुंच गये हैं , क्योंकि विज्ञान 

बहुत पैदा हो गया ।

पश्चिम मरेगा विज्ञान की अति से , पूरब मरा विज्ञान के अभाव से 

पूरब मरा विश्वास से , पश्चिम मर जायेगा विचार से ।
क्या कोई तीसरा रास्ता नहीं है ?

मनुष्य का भविष्य सिर्फ तीसरे रास्ते पर है ।

पूरब भी असफल हो गया है —- पश्चिम भी ।

विश्वास भी असफल हो गया है , विचार भी ।

धर्म भी असफल हो गया है विज्ञान भी ।

क्या कोई तीसरा रास्ता है ?
दो महायुध्दों ने बता दिया है कि विज्ञान बुरी तरह असफल हो गया है । उसने ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया है , जहां आदमी को

मरने के सिवाय कोई उपाय नहीं सूझता ।

हिरोशिमा और नागासाकी ने खबर दे दी कि विज्ञान असफल हो गया । 

अकेला विज्ञान काफी नहीं है । और हिन्दुस्तान के दरिद्र और गुलाम लोगों ने खबर दे दी बहुत पहले कि अकेला धर्म काफी नहीं 

है । धर्म असफल हो चुका है ।
लेकिन क्या यह नहीं हो सकता कि एक सीमा पर विचार हो और

एक सीमा पर विचार छोड़ दिया जाये ?

यह हो सकता है ।

यह जो थर्ड आल्टरनेटिव , जिसको मैं कहता हूं – तीसरा विकल्प 

— , वह विश्वास और विचार में चुनाव नहीं करता ।
वह कहता है , विचार एक सीढी़ है और निर्विचार भी एक सीढी़ है

विचार से चढ़ना है और एक जगह जाकर विचार छोड़ देना है ।

और जो आदमी इस कला को नहीं सीख लेता , उस आदमी को जीवन की गहराईयों और ऊंचाइयों का कोई भी पता नहीं चलता है । 

      # OSHO #
क्या सोवे तू बाबरी

तीसरा प्रवचन 

पहले विचार ,फिर निर्विचार 

से संकलित
दिनांक 24 फरवरी , 1969 ; के . ई . एम . हास्पिटल , बंबई

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