ओशो – तुम कौन हो ?

ओशो – तुम कौन हो ?

तुम भी बिलकुल भूल गए हो कि तुम कौन हो। और जन्मों-जन्मों में तुम बहुत जगह गए हो, बहुत यात्राएं की हैं। और उन यात्राओं में तुम अभी भी भटक रहे हो। कोई चाहिए जो सूत्र पकड़ा दे; तुम्हें थोड़ी सी याद आ जाए; तुम अपने घर के सामने खड़े हो जाओ। एक बार याद आ जाए तुम्हें भीतर के परमात्मा की, फिर सब धीरे-धीरे याद आ जाएगा।

समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इसी बात की कोशिश हैं कि तुम्हें अपनी थोड़ी सी स्मृति आ जाए। किसी तरह शरीर से एक क्षण को भी तुम छूट जाओ, तो तुम प्रकृति से छूट गए। किसी तरह क्षण भर को मन बंद हो जाए तो तुमने इस भटकाव में जो शब्द और सिद्धांत और शास्त्र इकट्ठे कर लिए हैं, उनको तुम भूल गए। जिस क्षण शरीर और मन से तुम जरा सी देर को भी टूट गए उसी क्षण तुम अपने घर के सामने खड़े हो जाओगे। इतना तुम्हें पहचान में आ गया–यह घर है! फिर सब याददाश्त वापस लौटने लगेगी।

और जैसे ही तुम जागना शुरू हो जाते हो, घर को पहचान लेते हो, अपने को पहचान लेते हो, थोड़ा ही सही, एक किरण भी हाथ में आ जाए, तो सूरज तक पहुंचने का रास्ता खुल गया। फिर तुम्हारे जीवन में पुनरुक्ति बंद हो जाएगी। फिर तुम्हारे जीवन में हर घड़ी नयी होगी। प्रकृति तो पुरानी है; वर्तुलाकार घूमती रहती है। परमात्मा सदा नया है। तुम भी सदा नये होने की क्षमता रखते हो। और तब प्रतिपल नया होगा। सुबह वही होगी, लेकिन तुम्हारे लिए वही नहीं होगी। सांझ वही होगी, लेकिन तुम्हारे लिए वही नहीं होगी। क्योंकि तुम नये होओगे। और जब तुम नये होते हो तो तुम्हारी दृष्टि बदल जाती है। दृष्टि बदलती है तो सारी सृष्टि बदल जाती है। नये होने की कला तुम्हें सीखनी पड़ेगी। अन्यथा तुम पुनरुक्त हो रहे हो; मशीन की तरह ही चल रहे हो। मशीन नया कर भी नहीं सकती

 – ओशो

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